रण में जिसने कभी पिया था लहू, आज पानी को भी तरसी वह रक्ततलाई
प्यासी है प्रसिद्ध युद्धभूमि रक्ततलाई : सूख गई घास और पौधे, पेड़ हुए अधमरे, अधिकारियों ने आंखें फेरी, देखरेख छूटी तो अब बन गई शराबियों की ऐशगाह

गिरीश पालीवाल @ खमनोर. साढ़े चार सदी पहले मातृभूमि की रक्षार्थ बाहरी आक्रांताओं और मेवाड़ के वीर शहीदों के मध्य हुई भीषण जंग में जिस रणभूमि ने लहू पिया, वह धरती आज पानी के लिए भी तरस रही है। भारत के गौरवशाली इतिहास के सबसे चुनिंदा पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित 'रक्ततलाईÓ अब बहुत अधिक उपेक्षित है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने डेढ़ दशक पहले इसे अधिग्रहित, संरक्षित और संवद्र्धित किया था। मगर विभागीय अधिकारियों की लापरवाही ने मेवाड़ के इस तीर्थ को बहुत दयनीय हालत में पहुंचा दिया है। मैदान में घास और पौधे सूख गए हैं। पेड़ अधमरी हालत में खड़े हैं और जिंदा बचने के लिए पानी मांग रहे हैं। रोशनी से जगमगाने के लिए जो लाइटें लगाई, उनमें से अधिकतर बदमाशों के हाथों टूट-फूट और चोरी हो चुकी हैं। बिल नहीं भरने से निगम ने बिजली का कनेक्शन ही काट दिया है। परिसर में १२ साल पहले लाकर रखे गए टॉयलेट का आज दिन तक ताला नहीं खुल पाया है। पर्यटकों के लिए यहां पीने का एक गिलास पानी नहीं मिलता। परिसर में हुए निर्माण असामाजिक तत्वों की तोडफ़ोड़ का शिकार हो गए हैं। किताबों में जिसे वीर भूमि पढ़ा, उसकी ऐसी दुर्दशा देखकर भ्रमणकारियों का मन दुखी हो जाता है।
न सुरक्षा न संवद्र्धन
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वर्ष 2003-04 में रक्ततलाई में शहीदों की समाधियों, स्मृति प्रतीकों को पुरा महत्व के स्मारक घोषित कर संरक्षित किया था। संरक्षित स्मारक में उद्यान बनाया और फिर इसे पर्यटकों के लिए खोला गया। तब से ही अधिकारियों ने इसकी उपेक्षा भी शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि न स्मारक के भीतर संपत्तियों की सुरक्षा हुई और न ही इसकी खूबसूरती को बरकरार रखने के लिए संवद्र्धित किया गया। विभाग के नियम देखें तो कोई एक पत्ता नहीं हिला सकता, मगर असलीयत ये है कि न केवल पेड़-पौधों को, बल्कि ठोस निर्माणों को भी तहस-नहस कर दिया गया है।
बनाना था आकर्षण, बन गया बदसूरत
रक्ततलाई परिसर में पर्यटकों के लिए सबसे बड़े आकर्षण के रूप में एक ताल बनाया जाना था। वर्ष 2003-04 में हुए कार्य के दौरान स्थानीय लोगों को बताया जाता था कि यहां एक ताल बनेगा, जिसमें लाल रंग का पानी हल्दीघाटी व रक्ततलाई में भीषण युद्ध के बाद लहू से भरी तलाई के दृश्य जैसा आभास कराएगा। मगर करीब सवा करोड़ रुपए संपूर्ण विकास पर खर्च करने के बाद भी आज दिन तक ना तो यहां ऐसा कुछ दिखा और ना ही इसके बारे में विभाग ने कुछ स्पष्ट किया। कृत्रिम ताल के पेटे में लगी टाइल्सें असामाजिक तत्वों ने तोड़ और उखाड़ दी गईं। किनारे पर वृत्ताकार में बनी सीमेंट की रैलिंग भी 90 फीसदी खत्म हो चुकी है। ताल को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है।
उजड़ गया उद्यान
रक्ततलाई परिसर में बनाया गया। उद्यान शुरू-शुरू में तो देखभाल की वजह से काफी हराभरा और खूबसूरत लगता था, मगर बाद के वर्षों में विभाग की अनेदखी और उपेक्षा के कारण अब लगभग सूख चुका है। घास की जो किस्म यहां बोई थी, वह अब नहीं है। बारिश में देशी घास उग आती है और कुछ समय बाद सूख जाती है। महंगे और विशेष किस्मों के 450 बड़े और एक हजार छोटे पौधे लगाए थे। बदमाशों द्वारा उखाड़ ले जाने और सूखने से अब पौधे कम ही रह गए हैं। चारदीवारी पर बोगल बेलें भी खत्म हो गई हैं। कुछ ऐसे पौधे जिन्हें कम पानी की जरूरत होती है, वह जरूर अस्तित्व बचाए हुए हैं। विडंबना है कि विभाग उद्यान में लगे पौधों को पानी तक नहीं पिला पा रहा है।
शराबियों का अड्डा, बिखरी पड़ी बोतलें
रक्ततलाई में कार्मिकों की निगरानी नहीं होने से शराबी घुस आते हैं। कई बार दिन में तो कभी रात में शराबी बोलतें, सिगरेट और खाने-पीने की सामग्री लेकर अड्डा जमा लेते हैं। परिसर में ही बोतलें व कचरा फैलाकर चले जाते हैं। परिसर में प्लास्टि की थैलियां, सिगरेट के खाली पैकेट और शराब की खाली बोतलें जमा हो जाती हैं। पर्यटक यहां की मिट्टी को नमन करने आते हैं, मगर ये चीजें देखकर उनकी श्रद्धा को बड़ी ठेस लगती है।
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