इस घनघोर जंगल में बसे गांव को सरकार गांव नहीं अतिक्रमण मानती है
(Jharkhand News ) बांध बनाने वाले बांध बना कर चले गए और अपनी पीछे बसा गए एक ऐसा गांव जो आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए (Without basic amenities) तरस रहा है। गांव भी ऐसी जगह पर जहां आसानी से कोई पहुंच नहीं सकता। घनघोर जंगल में जहां सदैव जंगली जानवरों का डर सताता हो। (Village settled in dense forest ) इस गांव में कोई बुनियादी सुविधा नहीं है। राशन-पानी भी दस किलोमीटर दूर पैदल चल कर लाना पड़ता है।

रामगढ़(झारखंड): (Jharkhand News ) बांध बनाने वाले बांध बना कर चले गए और अपनी पीछे बसा गए एक ऐसा गांव जो आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए (Without basic amenities) तरस रहा है। गांव भी ऐसी जगह पर जहां आसानी से कोई पहुंच नहीं सकता। घनघोर जंगल में जहां सदैव जंगली जानवरों का डर सताता हो। (Village settled in dense forest ) इस गांव में कोई बुनियादी सुविधा नहीं है। गांव में ना पानी है, ना बिजली है और ना ही बच्चों के लिए कोई स्कूल है। राशन-पानी भी दस किलोमीटर दूर पैदल चल कर लाना पड़ता है। ग्रामीण विकट आदिवासी जैसी हालत में अब जंगल में जिंदा रहने को विवश हैं और इसे अपनी नियति मान लिया है। सरकार इसे गांव का दर्जा नहीं देती। वन विभाग इस गांव को अतिक्रमण की श्रेणी में मानता है।
घनघोर जंगल में हैं रांगरिंग गांव
यह दास्तां है झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के सारंडा के जंगल में बसे रांगरिंग गांव की। यह गांव नोवामुंडी स्थित सेल की मेघाहातुबुरु खदान के रांगरिंग डैम के ठीक बगल में बसा है, जो सारंडा जंगल में पड़ता है। वर्ष 1985-86 के दौरान मेघाहातुबुरु लौह अयस्क खादान की लाल पानी व मिट्टी-मुरुम सारंडा जंगल में बहकर नहीं जाये। इसके लिए रांगरिंग में सेल प्रबंधन ने बिसरा की अग्रवाल नामक कंपनी को डैम बनाने का काम सौंपा।
डैम बनाने वाली कंपनी ने बसाया था
शुरू में मिट्टी को काटकर सैकड़ों मजदूर डैम बनाने में जुटे रहे। दो लेयर तक मिट्टी भराई का काम मजदूरों ने किया, जबकि तीसरे लेयर की मिट्टी भरने का काम जेसीबी मशीन से हुआ। इसके बाद डैम के ऊपर पत्थर सोलिंग का कार्य मजदूरों से कराया गया। यह कार्य चार-पांच वर्षों तक चला। इस डैम के निर्माण के लिए झारखंड-ओडि़शा के विभिन्न क्षेत्रों से मजदूरों को लाकर वहां काम पर लगाया गया। बाहर से लाये गये सारे मजदूरों को रहने के लिए डैम के बगल में ही टीना का शेड बनाया गया। यहीं अग्रवाल कंपनी का एक अस्थायी कार्यालय भी बना।
प्राकृतिक संसाधनों से आजीविका
डैम का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद काफी बाहरी मजदूर वापस चले गये। दर्जनों लोग इस आशा और विश्वास के साथ अग्रवाल कंपनी द्वारा बनाये गये टीना शेड में ही रहने लगे कि शायद आगे भी मेघाहातुबुरु खदान प्रबंधन उन्हें रोजगार देगा। कई साल रोजगार की इंतजार में बीत गए। इस पर श्रमिकों परिवारों ने वहां से जाने की बजाय सारंडा जंगल में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही अपना जीविका चलाना तय किया। अस्थायी तौर पर बनाई गई झोपडिय़ों को ही स्थाई बसेरा बना लिया। में रह गये। सभी मजूदर परिवार अपनी सुविधा के हिसाब से सारंडा जंगल से जीविकोपार्जन करने लगे। इस तरह यहां एक छोटा-सा गांव बस गया। गांव का नाम है रांगरिंग।
जंगल में रहते 42 परिवार
घने जंगल में बसे रांगरिंग गांव में 42 परिवार रहते हैं। इनमें से कुछ परिवारों के पास आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड भी है, लेकिन गांव को अब तक सरकारी मान्यता नहीं मिली है। यही वजह है कि अब तक सरकार ने यहां कोई विकास कार्य नहीं किया है। बिजली, पानी, चिकित्सा सुविधा की बात कौन कहे, गांव में जाने के लिए सड़क तक नहीं है।
राशन के लिए 10 किमी पैदल यात्रा
ग्रामीणों को यदि सरकारी दुकान से राशन लाना हो तो घने जंगल में लगभग 10 किलोमीटर पैदल चलकर मेघाहातुबुरु स्थित सरकारी राशन की दुकान तक जाना पड़ता है। गांव की पहली पीढ़ी ने शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया है। इस सुदूरवर्ती गांव में गैर सरकारी संगठन एस्पायर ने वर्ष 2019 से एक लकड़ी व पुआल की छोटी-सी झोपड़ी में एनआरबीसी स्कूल का नि:शुल्क संचालन शुरू किया। इसमें किरीबुरु के एक प्राइवेट शिक्षक फ्रांसिस मुंडा 20 किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ाने जाते हैं। पिछले दिनों नोवामुंडी के अंचल अधिकारी (सीओ) एवं प्रखंड विकास पदाधिकारी (बीडीओ) ने इस स्कूल का निरीक्षण किया.
सरकारी आश्वासन के भरोसे हैं
वन विभाग इसे सारंडा का अतिक्रमण गांव मानता है। जबकि श्रमिक परिवार अब यहां स्थायी डेरा डाल चुके हैं। करीब ३५ साल से यहां रहते हुए इन परिवारों का इलाके से गहरा लगाव हो गया है। चिकित्सा सुविधा के अभाव में अनेक जिंदगी गांव में ही दफन हो गई। सीओ और बीडीओ के दौरे से गांव के लोगों में उम्मीद जगी है कि इनके लिए भी रोजगार, शिक्षा, पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था सरकार करेगी। ऐसे गांवों में विकास योजनाओं को पहुंचाना आसान नहीं है। जब तक बुनियादी सुविधाएं मुहैया नहीं हो जाती तब यह सब कोरे आश्वासन ही हैं।
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