खूंटी के 8 बार सांसद कड़िया मुंडा देश के उन चुनिंदा सांसदों में शामिल हैं जिन्होंने राजनीति की शुरुआत उस पाठशाला से शुरु की जहां नेता वही बनता था जिसके दिलों दिमाग में देश और समाज के लिए कुछ करने की चाहत होती थी । 17वीं लोकसभा में वो नजर नहीं आएंगें इस बार पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। टिकट कटने की वजह उम्र बताई जाती है। मगर जब हम उनसे मिलने पहुंचे और बातचीत शुरु की तो उन्हें हर वो बात याद थी जो एक स्वस्थ इंसान की निशानी है।
कड़िया मुंडा ने अपने पुराने मकान को भी दिखाया और बताया कि सीमेंट का घर कब बना। खेती आज भी करते हैं। आज भी उनके घर अरहर की फसल कट कर रखी हुई नजर आएगी और मड़ुआ बोरियों में बंद रखा हुआ है। कड़िया मुंडा फक्र से खुद को किसान बताते हैं। ना बातचीत में कोई लामकाफ नहीं और ना ही सियासी दांवपेंच की कोई चर्चा।
1970 के दशक में जनसंघ के साथ जुड़ने और बीजेपी के बनने के बाद से कड़िया मुंडा ने कभी भी पार्टी का साथ नहीं छोड़ा। आज टिकटों और सत्ता की चाहत में जिस तरीके से दल बदल हो रहा है उस पर चिंता जाहिर करते हुए वे बताते है कि उनके प्रयास से भाजपा का खूंटी में एक पुराने मकान में पहला दफ्तर खुला था। दिल्ली में आज पार्टी मुख्यालय को देखने के बाद इस झोपड़ी को देख पार्टी में आई फर्क को देखा जा सकता है। बताया जाता है की उस दौर में खूंटी में कोई बीजेपी का झंडा तक उठाने वाला नहीं था।
संसद में आदिवासी समाज और झारखंड का नेतृत्व करने वाले कड़िया मुंडा ने संसद की सीढ़ियां न जाने कितनी बार चढ़ी होंगी। उनके जैसा सांसद अब है भी नहीं। वंचित समाज के नेता के तौर पर उन्हें पार्टी में सम्मान तो मिला ही पार्टी के बाहर भी वो हमेशा सम्मानित ही रहें। विरोधी भी उन पर दाग लगाने में नाकाम ही नजर आए। खूंटी में जयपाल सिंह मुंडा की विरासत संभाल रहे कड़िया मुंडा ने पार्टी का झंडा इनती मजबूती से गाढ़ा की 40 साल बाद भी विरोधियों का कोई नेता अपना सिक्का नहीं जमा सका।
तमाम मुश्किलों के बीच कड़िया मुंडा ने अपनी छवि के साथ कभी समझौता नहीं किया। वो दो ही जगह नजर आते रहे। संसद में और अपने संसदीय क्षेत्र में। पहली बार छठी लोकसभा में पहुंचे और 16वीं लोकसभा तक के उनके सफर में उन्होंने बतौर संसदीय समितियों, केंद्रीय मंत्री, लोकसभा डिप्टी स्पीकर समेत तमाम अहम पदों पर एक ऐसे पिछड़े इलाके का नेतृत्व किया जिसकी विरासत संभालना आसान नहीं। उनकी खींची लकीर के बराबर भी कोई आ सकेगा ये कहना बहुत मुश्किल है।