scriptगौ-माता – 2 | Cow and its importance in indian cultue and literature - Part 2 | Patrika News

गौ-माता – 2

Published: Aug 19, 2017 12:46:00 pm

महाभारत के ‘श्री-गौसंवाद’ में विष्णुकांता महासती लक्ष्मी साक्षात् उपस्थित होकर स्वयं गौमाता से प्रार्थना करती हैं

indian cow

indian cow

– गुलाब कोठारी

महाभारत का श्री-गौ संवाद
महाभारत के ‘श्री-गौसंवाद’ में विष्णुकांता महासती लक्ष्मी साक्षात् उपस्थित होकर स्वयं गौमाता से प्रार्थना करती हैं-‘मैं लोककान्ता (लोकप्रिया) हूं, नाम मेरा ‘श्री’ है। अभ्युदय हो आपका हे गौमाताओं! इन्द्र-विवस्वान्-सोम-विष्णु-वरुण-अग्नि-ऋषि तथा अन्यान्य सभी गणदेवदेवता मेरे ही कारण आज मोदमान हैं। जिनमें मेरा निवास नहीं होता, वे कालान्तर में सभी ओर से विनष्ट हो जाते हैं। पार्थिव शरीर मूलक अर्थ, चान्द्र मनोमूलक काम, तथा सौरी बुद्धि से समन्वित धर्म’ मुझ लक्ष्मी से समन्वित होकर ही सुखीशान्त हैं। मेरी यह बड़ी ही कामना है कि मैं आप में भी निवास करूं। मेरी इस प्रार्थना से आप भी श्री से समन्वित बन जाने का अनुग्रह करें।’
प्रत्युत्तर में गौमाताओं ने लक्ष्मी के इस आकर्षक आमन्त्रण के प्रति यही कह डाला-हे देवि! ‘आप स्वस्वरूपत: अस्थिर हैं, चंचल हैं, एवं सर्वसामान्यों के साथ आपका समागम होता रहता है। आपके इन्हीं लौकिक-अनुबन्धों के कारण हमें आपकी कोई कामना नहीं है। कल्याण हो आपका। जहां आप स्वच्छन्दता से रमण कर सकें, वहीं पधार जाएं। हमें अपने स्वरूप के लिए जो कुछ अपेक्षित है, वह सभी हममें पहले से ही विद्यमान है। अतएव हमें आपसे कोई प्रयोजन नहीं है।’
गौमाताओं की उपेक्षित वाणी सुनकर लक्ष्मीदेवी पुन: कहने लगीं कि, हे गौमाताओं! क्या कारण है कि, आप मेरा सहयोग नहीं चाहती? क्यों नहीं आप मुझ जैसी विष्णुकान्ता महासती का ग्रहण करतीं? सचमुच आज मैंने इस लोकवाद का मर्म समझा कि, अपनी इच्छा से यदि कोई विशिष्ट महान भी किसी के यहां चला जाता है, तो उसे एक बार तो तिरस्कृत होना ही पड़ता है। गौमाताओ! मानवश्रेष्ठ अत्यन्त प्रचण्ड तपश्चर्या के अनन्तर ही मुझे प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। यही स्थिति देव-दानव-गन्धर्व-पिशाच-उरग-राक्षसादि के अन्य योनियों की है। आप में लोकोत्तर प्रभाव है। उसी से आकर्षित होकर स्वयं अपनी इच्छा से मैं आपके समीप उपस्थित हुई हूं। आप अवश्य ही मुझे स्वीकार करें। क्योंकि इस त्रैलोक्य में चराचर समस्त वर्ग में कोई भी वैसा नहीं है, जो मेरी उपेक्षा कर स्वस्वरूप से रह सके।
गौमाताओं ने मन्दहास पूर्वक ही मानो यह प्रत्युत्तर उपक्रान्त किया कि हे देवि! हम कदापि आपका अपमान नहीं कर रहीं। न हमें आपका तिरस्कार ही अभीष्ट है। आप में सभी गुण हैं, यह भी मान लेती हैं हम। किन्तु जिस अस्थिरता एवं चंचलता से हमारे स्वरूप का मौलिक विरोध है, उस अस्थिरता तथा चंचलता से आपका समागम तो हम कदापि स्वरूपानुरूप नहीं मानतीं। कृपा कर अब आप वहीं पधार जाएं जहां आपका अनुकूलता से स्वागत आतिथ्य होता रहता है।
‘बहुना च किमुक्तेन गम्यतां यत्र वाञ्छसि’ इस अन्तिम रक्ष सैद्धान्तिक प्रत्युत्तर से लक्ष्मी देवी का सम्पूर्ण महत्व मानो विगलित ही हो गया। उन्हें आज प्रथम बार इसी विश्व में यह अनुभव प्राप्त कर लेना पड़ा कि मेरी सर्वथा उपेक्षा करने वाले भी इसी भूतल पर विद्यमान हैं। अत्यन्त प्रणतभाव से महालक्ष्मी प्रार्थना करने लगीं गौमाताओं से कि हे गौमाताओं! यदि आपने इस प्रकार मेरा परित्याग कर दिया, तो मैं सम्पूर्ण त्रैलोक्य में सभी के द्वारा अवमानित हो जाऊंगी। एकमात्र आपकी उपेक्षा से सम्पूर्ण त्रैलोक्य ही मेरी उपेक्षा करने लग पड़ेगा। अतएव आप मुझ पर अनुग्रह कीजिए। आप तो स्वयं अपने ही रूप से महाभाग्यवती हैं। किन्तु मेरा अत्यन्त ही अहित है आप से पृथक रहने में। आप मुझे अपनी शरण में लेकर मेरी रक्षा कीजिए। सदा सर्वदा ही त्रैलोक्य के लिए शिवा शान्तिकारी प्रमाणित होती रहने वाली हे गौमाताओ! आप भले ही अपने किसी उत्तम शरीराङ्ग में मुझे स्थान प्रदान न करें। अपितु मुझे तो अपना कोई वैसा अवरश्रेणि का ही अङ्ग बतला दें, उसमें निवास करके ही मैं अपने आपको अभिन्दित बना लूंगी। मैंने आपके सर्वाङ्गशरीर का सर्वात्मना अवलोकन कर लिया। किन्तु मुझे तो आपके अङ्गों में कोई भी अङ्ग ऐसा उपलब्ध नहीं हुआ, जो पुण्य-पवित्र-महाभाग से वञ्चित हो। अतएव अब तो यह आप ही के कृपापूर्ण आदेश पर अवलम्बित है कि आप स्वयं अपनी दृष्टि से जिस अङ्ग को अवराङ्ग मानती हैं, उसी में निवास करने का मुझे आदेश प्रदान कर दीजिए।
जब इस प्रकार अत्यन्त दीनभाव से महालक्ष्मी गौमाताओं की शरण में ही आ गई, तो करुणा वत्सला गौमाताएं संयम न रख सकीं। अपितु सब ने परस्पर मंत्रणा कर सम्मिलित रूप से ही मूकभाव से यह आश्वासन प्रदान कर डाला कि हे यशस्विनी लक्ष्मीदेवी! ‘हम अवश्य ही आपको आश्रय-प्रदान करने में समवेत हैं। हे शुभे! आप हमारे शकृत्, तथा मूत्र में ही (गोमय, तथा गोमूत्र में ही) आज से निवास कीजिए। जो हमारी दृष्टि में भी अत्यन्त ही पवित्र द्रव्य प्रमाणित है। इधर गौमाताओं के पावन मुख से ‘शकृन्मूत्रे निवस त्वम्’ वाक्य निकला ही था कि, महालक्ष्मी तत्क्षण ही गौमाताओं के देखते-देखते इनके शकृन्मूत्र जैसे धन्यतम-यशस्यतम उस पुण्यतम द्रव्य में अन्तर्लीन ही हो गई।’
श्रीरुवाच- दिष्टया प्रसादो युष्माभि: कृतो मेऽनुग्रहात्मक:।
एवं भवतु भद्रं व: पूजितास्मि सुखप्रदा!॥
भीष्म उवाच- एवं कृत्त्वा तु समयं श्रीर्गोभि: सह भारत!।
पश्यन्तीनां ततस्तासां तत्रैवान्तरधीयत॥
एवं गोशकृत: पुत्र! माहात्म्यं ते तु वर्णितम्।
माहात्म्यं च गवां भूय: श्रुयतां गदतो मम ॥
महाभारते अनुशासनपर्वणि ‘श्री-गौसंवादों’ नाम द्वयशीतितमोऽध्याय: (८२ वां अध्याय)
‘गौतत्त्व’ का ही नाम ‘ऋषभ’ है। यह गौतत्त्व ‘वाग्-विराड्-गौरिडा भोगा विधा स्मृता:’(ब्रह्मसमन्वय) सिद्धान्त अनुसार वाक्, विराट्, गौ, इडा, भोग भेद से पांच भागों में विभक्त है। वषट्कार मण्डल ही वाड्मयी गौ है। दर्शर्षि प्राण की समष्टि ही विराट् गौ है। सूर्य गौरूप गौ है। पृथिवी ही इडा गौ है, एवं चन्द्रमा ही भोगरूपा गौ है। आनन्द-विज्ञान-घन मन प्राण गर्भिता अव्ययवाक् ही सम्पूर्ण विश्व का आलम्बन है। इस वाक् का विकास वेदरूप से सर्वप्रथम स्वयंभू में ही होता है। यही स्वायम्भुवी वेदमयी वाक् क्रमश: वायु-तेज-जल-पृथिवी रूपों में परिणत होती हुई सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो जाती है। अतएव इसके लिए ‘अथो वागवेदं सर्वम्’ कहा जाता है। यही वाक्तत्त्व ‘गौ’ नाम से व्यवहृत होता है।
स्वयंभू पुरुषापेक्षया ‘वाङमय’ है। स्वयंभू प्राणमय ब्रह्मा है। यह प्राणमय ब्रह्मा, अथवा वेदमूर्ति ब्रह्मा उस आनन्द-विज्ञान-घन-मन:प्राणगर्भिता अव्ययवाक् का विकास मात्र है। यही पुरुष वाक् (जिसका कि आलम्बन हृदयस्थ अव्यय का श्वोवसीयस् मन है।) प्रकृतिरूप प्राणमय ब्रह्मा की अधिष्ठात्री बनती है। इसी वाङमय प्राणतत्त्व से, दूसरे शब्दों में-प्राणमय वाक्तत्त्व से ‘विराट्’ का जन्म होता है। यही आपोमय विष्णु है। १० अक्षर के छन्द का ही नाम ‘विराट्’ है। स्वयंभू की वाक् वेदमयी है। वेदतत्त्व ऋक्-यजु:-साम भेद से तीन भागों में विभक्त है। त्रिधा विभक्त वेद का यजुर्भाग यत्-जू रूप स्थिति गत्यात्मक प्राण वाक् सम्पत्ति से युक्त है। गति ‘यत्’ प्राणतत्त्व है, ‘जू’ स्थिति वाक्तत्त्व है। प्राण के व्यापार से यही वाक्तत्त्व आपरूप से द्रुत होता हुआ आपोमय में परिणत हो जाता है। इसी आप्ततत्त्व का नाम परमेष्ठी है।
क्रमश: भाग 3 में…

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो