scriptगौ-माता – 3 | Cow and its importance in indian cultue and literature - Part 3 | Patrika News

गौ-माता – 3

Published: Aug 19, 2017 12:50:00 pm

तेजसत्त्व अङ्गिरा है, स्नेहतत्त्व भृगु है। ‘आपो भृग्वङ्गिरोरूपमापो भृग्वङ्गिरोमयम्’ के अनुसार दोनों की समष्टि ही ‘आप:’ है

indian cow

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– गुलाब कोठारी

तेजसत्त्व अङ्गिरा है, स्नेहतत्त्व भृगु है। ‘आपो भृग्वङ्गिरोरूपमापो भृग्वङ्गिरोमयम्’ के अनुसार दोनों की समष्टि ही ‘आप:’ है। मातरिश्वा नामक पिण्ड समर्पक प्राणवायु के द्वारा इस आप: तत्त्व की उस ब्रह्माग्नि रूप यजुराग्नि में आहुति होती है। इसी आहुति से दशाक्षर विराट का जन्म हो जाता है। ऋक्-साम यत्-जू-आप:-वायु-सोम-अग्नि-यम-आदित्य ही दश अक्षर हैं। ऋक्साम प्रसिद्ध हैं। यत् जू यज्जू है। यही परोक्षभाषा के अनुसार ‘यजुर्वेद’ है। आप:-वायु-सोम भृगु है। अग्नि-यम-आदित्य अङ्गिरा है। दोनों की समष्टि ही आप: है। यही ‘अथर्वा’ है। स्वायम्भुव त्रयीवेद उस षट्कल आप: में अन्तर्लीन हो जाता है। परमेष्ठी का विराट् तत्त्व सिद्ध हो जाता है और वाक् से विराट् गौ उत्पन्न होती है- यही आपोमय विष्णु है। इस विराट् से गौरूप धरा गौ उत्पन्न होती है। सौरी गौ ही गौ है। इसकी उत्पत्ति पारमेष्ठ्य विराट् से ही होती है। इस गौ से ‘इडा गौ’ उत्पन्न होती है। इडा से ‘भोग गौ’ उत्पन्न होती है।
गौ वाङमय प्राण तत्त्व का नाम है। स्वयंभू में इसका विकास वाग् रूप से होता है। परमेष्ठी में विराट्रूप से होता है। सूर्य में गौ (रश्मि) रूप से होता है। पृथिवी में इडारूप से होता है। एवं चन्द्रमा में भोगरूप से होता है। स्वयंभू से परमेष्ठी उत्पन्न होता है। परमेष्ठी से सूर्य का प्रादुर्भाव हुआ है। सूर्य से पृथिवी उत्पन्न हुई है। पृथिवी से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ है। यही क्रम गौ की उत्पत्ति का है। इस प्रकार क्षराक्षरविशिष्ट अव्यय प्रजापति के श्वोवसीयस् मन से प्रादुर्भूता ‘वाग् गौ’ ही क्रमश: वाक्, गौ, इडा, भोग और विराट रूपों में परिणत हो जाती है। दूसरे शब्दों में एक ही गौतत्त्व पांच स्थानों में विभक्त होकर भिन्न-भिन्न नाम-रूप-कर्मों से सम्बन्ध कर लेता है।
१. वाक् -गौ
वाक्, गौ, इडा, भोग, पशु इन पांचों गोतत्त्वों का निरूपण अप्राकृत है। देवपात्र रूप सुप्रसिद्ध ‘वषट्कार’ मण्डल ही ‘वाग्गौ’ है। वषट्कार मण्डल वाङ्मय है। मन: प्राणगर्भित वाक् तत्त्व ही ‘वाक्’ है। मन ‘अकार’ है। प्राण ‘उकार’ है, एवं वाक् ‘मकार’ है। मन अर्थसृष्टि में निर्लिप्त है, सुसूक्ष्म है। वाक् तत्त्व संसृष्ट है, सलेप है, स्थूल है।
यह वाक् तत्त्व प्रत्येक वस्तुपिण्ड से निकल कर अपनी १००० किरणों को वितरित करता हुआ एक महामण्डल बनाता है। यही महामण्डल पुन:पद, विश्वरूप, साहस्री, महिमा आदि अनेक नामों से व्यवहृत हुआ है। यही मण्डल ‘वषट्कार’ नाम से प्रसिद्ध है। १००० वाग्गौ हैं। इनमें ३०-३० गौ की एक-एक राशि का नाम एक-एक ‘अहर्गण’ है। इस प्रकार ९९९ में रश्मियों के ३३ अहर्गण हो जाते हैं। १० शेष बच जाते हैं। यही चौतीसवां न्यून अहर्गण शेष रह जाता है। इसी के लिए ‘चतुस्त्रिश: प्रजापति:’ कहा जाता है।
३३ अहर्गणों में ३ को मूलाधार मान कर उसमें ६ अहर्गण और मिला देने से ‘त्रिवृत्स्तोम (९)’ का स्वरूप बनता है। और ६ अहर्गणों के मिला देने से ‘पञ्चदश स्तोम (१५)’ का स्वरूप बनता है। इसमें और ६ अहर्गणों के समावेश करने से ‘एकविश स्तोम (२१)’ की स्वरूप निष्पत्ति होती है। इसमें और ६ अहर्गण मिला दिए जाते हैं, तो ‘त्रिणव स्तोम (२७)’ की स्वरूप निष्पत्ति होती है। एवं और ६ अहर्गणों के सम्बन्ध से ‘त्रयस्त्रिश स्तोम (३३)’ का स्वरूप निष्पन्न होता है। इस प्रकार त्रिवृत्, पञ्चदश, एकविश, त्रिणव, त्रयस्त्रिश भेद से ५ स्तोम हो जाते हैं। ३३ अहर्गणात्मक पूरे मण्डल का केन्द्र १७ वां स्थान है। यही ‘उद्गीथ प्रजापति’ है। इसी के लिए ‘सप्तदशो वै प्रजापति:’ कहा जाता है। यही ६वां स्तोम है। इस प्रकार १ त्रिवृत २ पञ्चदश ३ सप्तदश ४ एकविश ५ त्रिणव ६ त्रयस्त्रिश भेद से एक ही सहस्रगोमय वाक् तत्त्व ६ भागों में विभक्त हो जाता है। वाक् के इस षट्कार का नाम ही वषट्कार है। वाक् इन्द्र प्रधान है। इन्द्र के द्वारा ही वाक् का व्याकरण होता है। एक ही वाक् तत्त्व वायुमय इन्द्र के सम्बन्ध से खण्ड-खण्ड रूप में परिणत होता हुआ व्याकरण का अधिष्ठाता बनता है। एक का वविधाकारकरण ही व्याकरण है। यह वाक् तत्त्व इन्द्रमय है। यही हमारे प्रकरण की प्रथमा ‘वाग्गौ’ है।
२. गौ-गौ
ज्योति:, गौ:-आयु भेद से सूर्य में तीन ‘मनोता’ माने जाते है। ज्योति से ‘ज्योतिष्टोम’ का स्वरूप बनता है। ज्योतिस्तत्त्व सात भागों में विभक्त है। इसी आधार पर ‘सप्तसंस्थो वै ज्योतिष्टोम’ का स्वरूप बन जाता है। वे सातों ज्योति: संस्थाएं १ अग्निष्टोम २ अत्यग्निष्टोम ३ उक्थ्यस्तोम ४ षोडशी स्तोम ५ अतिरात्र स्तोम ६ वाजपेय स्तोम ७ आप्तोर्याम स्तोम इन नामों से प्रसिद्ध हैं। दूसरा गौतत्त्व है। इसी से ‘गोष्टोम’ का स्वरूप निष्पन्न होता है। तीसरा आयुस्तत्त्व है। इसी से ‘आयुष्टोम’ का सम्बन्ध है। अङ्गिरारूप अग्नितत्त्व आयु ही है। जब तक शरीर में गर्मी है, तभी तक आयु है। इसी आयु रूप अङ्गिरा पर ‘अङ्गिर सामयन’ नाम का यज्ञ प्रतिष्ठित है। गौतत्त्व पर (जो कि वायुप्रधान है) ‘गव सामयन’ नाम का यज्ञ प्रतिष्ठित है, एवं ज्योति:स्वरूप आदित्य ‘आदित्यानामयन’ नाम के यज्ञ की प्रतिष्ठा है।
इन तीनों में गौतत्त्व सहस्र हैं। इनमें से ३३३ गौ का भोग तो सूर्य में होता है, ३३३ गौ का भोग अन्तरिक्ष में होता है, एवं ३३३ गौ का भोग पृथिवी में होता है। पृथिवी में ‘वसुदेवता’ की प्रधानता है, अन्तरिक्ष में ‘रुद्रदेवता’ की प्रधानता है, एवं सूर्य ‘आदित्यमय’ है। वसु-रुद्र-आदित्य तीनों में क्रमश: ३३३, ३३३, ३३३ गौतत्त्व विभक्त हैं। परमेष्ठी में भृगु और अङ्गिरा हैं। वही ‘गौसव’ नाम से प्रसिद्ध ‘पञ्चदशाहयज्ञ’ होता है। गौतत्त्व की उत्पत्ति इसी सोममय परमेष्ठी में होती है। गौ का पिता परमेष्ठी है।
रुद्र अन्तरिक्ष के अधिष्ठाता हैं। अन्तरिक्ष में वायु का साम्राज्य है। यही वायु रुद्र की आत्मा है। यहां का वायुतत्त्व गौमय है। ३३३ गौ इसमें प्रतिष्ठित हंै। यह गौमय वायु ही रुद्र का प्रभाव है। अतएव इन आन्तरिक्ष्य गौतत्त्व को हम ‘रुद्रमाता’ मान सकते हैं। पृथिवी में वसु की सत्ता है। अग्नि की आठ अवस्था ही आठ वसु हैं। यहां भी ३३३ गौ का सम्बन्ध है। इन गौओं का प्रभाव-प्रतिष्ठा-परायण यह वसुरूप अग्नितत्त्व ही है। अतएव पार्थिव गौतत्त्व को हम अवश्य ही वसु की कन्या मान सकते हैं। एक ही पारमेष्ठय गौतत्त्व स्थानभेद से आदित्य-रुद्र-वसु देवताओं से सम्बन्ध करता हुआ तीन स्वरूपों में परिणत हो जाता है।
परमेष्ठी सोममय है। सोम ही ‘अमृत’ है। गौतत्त्व ही ‘सोमरस’ का प्रवर्तक है। इसे ही ‘अमृत की नाभि’ कह सकते हैं। पृथिवी और सूर्य के मध्य का स्थान सौरतत्त्व के अविच्छिन्न रूप से आने से ‘अदिति’ नाम से प्रसिद्ध है। इसी त्रैलोक्य-व्यापक, अमृत नाभिस्वरूप, वसु-रुद्र-आदित्य अदिति नाम से प्रसिद्ध ‘गौतत्त्व’ से ‘गौपशु’ का आत्मा बना है। उस गौ की यह उसी प्रकार प्रतिमूर्ति है, जैसे कि ‘सम्वत्सर यज्ञपुरुष’ की प्रतिकृति ‘मनुष्य’ है। गौपशु में सम्पूर्ण प्राण देवता विकसित हैं। इसके दुग्ध में सोमरस आपूर्यमाण (भरा) है।
क्रमश: भाग 4 में…

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