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विचार मंथन : जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग कर देना चाहिए- भगवान महावीर

locationभोपालPublished: Feb 23, 2019 06:33:45 pm

Submitted by:

Shyam

जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग कर देना चाहिए- भगवान महावीर

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विचार मंथन : जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग कर देना चाहिए- भगवान महावीर

जीवन के मूलभूत सिद्धांत
जीवन के मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है । उन्होंने कहा कभी किसी को कष्ट न देना यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है जिसमें हम किसी भी प्राणी को जाने-अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते । मानव जीवन की अमूल्यता इसी तथ्य में निहित है कि उसके पास दूसरों को कष्ट से बचाने की अद्भुत शक्ति है। अतः स्थूल रूप से अहिंसा को मानने वाले किसी को भी पीड़ा, चोट, घाव आदि नहीं पहुँचाते ।

 

अहिंसा का सूक्ष्म स्तर यह है किसी भी प्राणी के लिए अनिष्ट, बुरा, हानिकारक नहीं सोचना । हिंसा से पूरित मनुष्य सामान्य रूप से दूसरों को क्षति पहुँचाने की वृत्ति से भरा होता है लेकिन अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर किसी की भी भावनाओं को जाने-अनजाने ठेस पहुँचाने का निषेध नियम है । अहिंसा के सूक्ष्तम स्तर पर ऐसा बौद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है । हम निरंतर अपने आस-पास रही उन वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों के प्रति घृणाभाव से भरे रहते हैं जो हमारे प्रतिकूल हों अथवा जिन्हें हम अपने अनुकूल न बना पा रहें हों । यह घृणा की भावना हमारे भीतर अशांति, असंतुलन व असामंजस्य उत्पन करती है ।

 

जब मनुष्य उचित-अनुचित में से उचित का चुनाव करता है एवं अनित्य शरीर-मन-बुद्धि से ऊपर उठकर शाश्वत स्वरुप में स्थित होता है तो परिणामतः वह अपनी आनंद रुपी स्व सत्ता के केंद्र बिंदु पर लौटता है जिसे ‘ ब्रह्मचर्य ‘ कहा जाता है । शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ मानने की धारणा से बाहर निकलने के परिणामरूप शारीरिक साहचर्य व संभोग की चाहतें गिरती हैं- इस अवस्था को हम ब्रह्मचर्य मान सकते हैं क्योंकि जब अपने ही शरीर से मोह नहीं रहता है तब किसी शरीर से भोग की तृष्णा को छोड़ पाना अत्यंत सरल हो जाता है । जो स्व स्वरुप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बाह्य दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है ।

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