लेकिन सदैव अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले महावीर स्वामी तो भय रहित थे, और उनके हृदय मन में किसी के भी प्रति नफरत या द्वेष भाव नहीं था । इसलिए वे बिना भयभीत हुये उसी घने रास्ते से जंगल में प्रवेश कर गए । कुछ देर चलने के बाद जंगल की हरियाली समाप्त होने लगी और चारों ओर बंजर ही बंजर भूमि नज़र आने लगी, ऐसा लग रहा था मानों वहां के पेड़ पौधे मृत हो चुके थे और दूर दूर तक जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं था । भगवान महावीर स्वामी समझ गए कि वह चंडकौशिक सर्प के इलाके में आ चुके हैं, वे वहीं रुक गए और ध्यान की मुद्रा में एक पेड़ के नीचे बैठ गए । इस ध्यान की अवधि में भगवान महावीर के ह्रदय से प्रत्येक जीव के कल्याण के लिए शांति और करुणा बह रही थी ।
भगवान महावीर स्वामी की आहट सुन चंडकौशिक सर्प फौरन सतर्क हो गया और अपने बिल से बाहर निकलकर महावीर स्वामी को देखते ही वह क्रोध से लाल होकर फुंफकारने लगा । लेकिन महावीर स्वामी शांतचित्त होकर अपनी ध्यान मुद्रा में बिना विचलित हुये बैठे रहे । यह देख चंडकौशिक और भी क्रोधित हो गया और उनकी ओर बढ़ते हुए अपना फन हिलाते हुये आवाज करने लगा । महावीर अभी भी शांति से बैठे रहे और न भागने की कोशिश की ना भयभीत हुए, सर्प का क्रोध बढ़ता जा रहा था, उसने फ़ौरन अपना ज़हर महावीर के ऊपर उड़ेल दिया । लेकिन भगवान महावीर इसके बाद भी ध्यानमग्न ही रहे और उसके प्राणघातक विष का उनपर कोई असर नही हुआ ।
चंडकौशिक को विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई मनुष्य उसके विष से बच सकता है, वह बिजली की गति से आगे बढ़ा और महवीर के अंगूठे में अपने दांत गड़ा दिए । लेकिन इसका भी महावीर स्वामी पर कोई असर नहीं हुआ और उनके अंगूठे से खून की जगह दूध बहने लगा । तभी भगवान महावीर स्वामी ने अपनी आँखें खोली, और प्रसन्नता पूर्वक चंडकौशिक की आँखों में देखते हुए बोले- उठो उठो चंडकौशिक सोचो तुम क्या कर रहे हो, भगवान की वाणी और आंखों से अथाह प्रेम और स्नेह बरस रहा था । चंडकौशिक सर्प ने इससे पहले कभी इतना निर्भय और वात्सल्यपूर्ण प्राणी नहीं देखा था, वह शांत हो गया । महावीर स्वामी की कृपा से सर्प का ह्रदय परिवर्तन हो गया वह प्रेम और अहिंसा का पुजारी बन गया, उसके कई पाप कर्म नष्ट हो गए और वह मरने के बाद स्वर्ग का अधिकारी बना ।