बड़प्पन की बात निर्माण है, विनाश नहीं : भगवान बुद्ध
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का कहना था कि दिखावट और फिजूलखर्ची अच्छे मनुष्यों का लक्षण नहीं वह चाहे कितना ही बडा़ आदमी क्यों न हो। फिजूल खर्च करने वाला समाज का अपराधी है क्योंकि बढे़ हुए खर्चों की पूर्ति अनैतिक तरीके से नही तो और कहां से करेगा? मितव्ययी आदमी व्यवस्था और उल्लास की बेफिक्री और स्वाभिमान की जिदंगी बिताता है, क्या हुआ यदि साफ कपडा़ चार दिन पहन लिया जाए इसके बजाय कि केवल शौक फैशन और दिखावट के लिए दिन में चार कपडे बदले जाऐं रोजाना धोबी का धुला कपडा पहना जाए।
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मितव्ययी लोग थोडी-सी आमदनी से ही जैसी शान की जिंदगी बिता लेते है, उन्ही में से एक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी भी थे। उनका प्रमाण रांची वाले जूते थे। बस यहां तक का उनका जीवन था, अब उन जूतों को हर हालत में बदल डालने की उन्होंने भी आवश्यकता अनुभव की। उनके निजी सचिव गये और अच्छा-सा मुलायम जूता 19 रुपये में खरीद लाए। उन्होंने सोचा था यह जूते उनके व्यक्तित्व के अनुरूप जचेंगे, पर यहां तो उल्टी पड़ी, उन्होंने कहा- जब 11 रुपये वाले जूते से काम चल सकता है तो फिर 19 रुपये खर्च करने की क्या आवश्यकता है? मेरा पैर कड़ा जूता पहनने का अभ्यस्त है, आप इसे लौटा दीजिये।
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निजी सचिव अपनी मोटर की ओर बढे़ कि यह जूता बाजार जाकर वापस लौटा आएं, पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ऐसे नेता नही थे, जो 1 की जगह 4 खर्च करने, प्रजा का धन होली की तरह फूंकने की मनमानी करते। उनमें प्रजा के धन की रक्षा की भावना थी। राजा ही सदाचरण का पलन नहीं करेगा तो प्रजा उसका परिपालन कैसे करेगी? इसलिए जान बूझकर उन्होंने अपने जीवन में आडंबर को स्थान नही दिया था और हर समय इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरी प्रजा का एक पैसा भी व्यर्थ बरबाद न हो। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने सचिव को वापस बुलाकर कहा ‘दो मील जाकर और दो मील वापस लौटकर जितना पेट्रोल खर्च करेंगे, बचत उससे आधी होगी तो ऐसी बचत से क्या फायदा? सब लोग उनकी विलक्षण सादगी और कमखर्ची के आगे नतमस्तक हुए।
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