कुछ ऑफिसों के लोग, साधारण पदवी वाले कर्मचारी और घरों में भी जो लोग थोडा बहुत पढ-लिख जाते हैं, वे अपने आपको साफ-सुथरा रख सकते हैं, पर अपने आवास और पास-पड़ोस को साफ रखने से शान घटने की ओछी धारणा लोगों में पाई जाती है, किंतु उनको यह बात बिल्कुल भी छू तक न गई थी। बात उन दिनों की है जब मैं सौभाग्य से भारत का प्रधानमंत्री था, पार्लियामैंट से दोपहर का भोजन करने के लिए मैं अपने आवास जाया करते था। एक दिन की बात है घर के बच्चों ने तमाम् कागज के टुकडे फाड़ फाड़ कर चारों तरफ फैला दिये थे। खेल-खेल में और भी तमाम गंदगी इकट्ठी हो गई थी घर के लोग दूसरे कामों में व्यस्त रहे, किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि घर साफ नहीं है और मेरे भोजन करने का वक्त हो गया है।
प्रधानमंत्री नियमानुसार दोपहर के भोजन के लिए जैसे ही मैं घर पहुंचा, घर में पांव रखते ही मेरी निगाह सबसे पहले घर की अस्त-व्यस्तता और गंदगी पर गई। मैंने चुपचाप ही झाडू उठाई और कमरे में सफाई शुरु कर दी, तब दूसरे लोगों का भी ध्यान मेरी ओर गया, पहरेदार सिपाही, घर के नौकर मेरी धर्मपत्नि सब जहां थे, वही निर्वाक खड़े मुझे अपलक देखते रहे और मैं चुपचाप झाडू लगाते रहा।
किसी को भी मुझे बीच में टोकने का साहस न पड़ा, क्योंकि मैंने पहले से ही कडी़ चेतावनी दे रखी थी कि मेरे काम करने के बीच में कोई भी छेडना कभी भी न करें। सफाई हो गई तो सभी लोग मुस्कराते हुए रसोइ पहुंचे। झाडू लगाने से मुझे कोइ कष्ट नहीं पहुंचा वरन उसके बाद मेरी मानसिक प्रसन्नता कहीं अधिक बढ़ गई थी।
मेरी धर्मपत्नी ने विनीत भाव से कहा- हम लोगों की लापरवाही से आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा तो मैं जोर से हंसकर बोला- हां लापरवाही तो हुई पर मुझे सफाई से कोई कष्ट नहीं हुआ। यह तो हर मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है कि यह अपनी और अपने पड़ोसी की बेझिझक सफाई रखा करे।