विचार मंथन : सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं करें- महात्मा बुद्ध

Shyam Kishor | Publish: Sep, 07 2018 04:42:48 PM (IST) धर्म और आध्यात्मिकता
सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं करें- महात्मा बुद्ध
सत्य के तीन पहलू
भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा । बिहार के श्रावस्ती नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था । शंका समाधान के लिए- उचित मार्ग-दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी । आगन्तुक ने पूछा- क्या ईश्वर है ? बुद्ध ने एक टक उस युवक को देखा- बोले, “नहीं है ।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा । उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया- क्या ईश्वर हैं ? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था । उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- “हाँ ईश्वर है ।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया- क्या ईश्वर है ? बुद्ध मुस्कराये और चुप रहे- कुछ भी नहीं बोले । अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था उसी मार्ग से वापस चला गया ।
आनन्द उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था । संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गये उत्तर को वह सुन चुका था । एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न, यह बात उसके गले नहीं उतरी । बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा- अविचल निष्ठा थी पर तार्किक बुद्ध ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी । सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है ।”
आनन्द ने पूछा- “भगवन् ! धृष्टता के लिए क्षमा करें । मेरी अल्प बुद्धि बारम्बार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों ? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती ?
बुद्ध बोले- “आनन्द! महत्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का सम्बन्ध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है । महत्वपूर्ण वह मनःस्थिति है जिससे प्रश्न पैदा होते हैं । उसे ध्यान में न रखा गया- आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गयी तो सचमुच ही सत्य के प्रति अन्याय होगा । पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी ।
उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले- प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक पर उसकी निष्ठा कमजोर थी । आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी । वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था । अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था । उसको हिलाना आवश्यक था ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है तो उसे वह मजबूत कर सके इसलिए उसे कहना पड़ा- “ईश्वर नहीं है ।”
दूसरा व्यक्ति नास्तिक था । नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है जिसका उपचार न किया गया तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी । उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था । उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था । इसलिए कहना पड़ा- “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा । परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी । उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है । अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्म विकास में सहायक ही होगा ।
तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था । उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता । मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था । मेरा आचरण ही उसकी सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचायेगा ।” आनन्द का असमंजस दूर हुआ । साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है ? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए ।
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