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विचार मंथन : जीवन व्यवस्था में ‘आत्म-ज्ञान’ को धारण करने का साहस यज्ञ से ही मिलता है- प्रज्ञा पुराण

जीवन व्यवस्था में ‘आत्म-ज्ञान’ को धारण करने का साहस यज्ञ से ही मिलता है- प्रज्ञा पुराण

भोपालMar 30, 2019 / 03:38 pm

Shyam

daily thought

विचार मंथन : जीवन व्यवस्था में ‘आत्म-ज्ञान’ को धारण करने का साहस यज्ञ से ही मिलता है- प्रज्ञा पुराण

देव संस्कृति के धर्म पिता “यज्ञ” हैं
जहाँ गायत्री को विश्वमाता कहा गया है वहाँ यज्ञ को देव संस्कृति-धर्म का पिता कहा गया है । दोनों के समन्वय-सहयोग से ही देव संस्कृति का जन्म, विकास एवं परिपोषण सम्भव हुआ । ‘यज्ञ’ में यज्ञीय भावनाओं के अभिवर्धन को बहुत महत्व दिया गया है । यज्ञ शब्द का भावार्थ है- पवित्रता, प्रखरता एवं उदारता । यह तत्वदर्शन व्यक्तिगत जीवन में भी समाविष्ट रहना चाहिए और उसे लोक व्यवहार में भी उत्कृष्टता की प्रथा-परम्परा जैसा प्रश्रय मिलना चाहिए । जीवन यज्ञ की चर्चा शास्त्रों में स्थान-स्थान पर हुई है । ब्रह्म यज्ञ, विश्वयज्ञ आदि नामों से समाज में यज्ञीय प्रचलन की प्रमुखता पर बल दिया है ।

 

पशु-प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने, पतनोन्मुख प्रवाह को उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के अनुबन्ध निर्धारण यज्ञ कहलाते हैं । इसी अवलम्बन के सहारे मानवी प्रगति सम्भव हुई है। वर्तमान की स्थिरता एवं उज्जवल भविष्य की सम्भावना भी इसी सदाशयता के अवलम्बन पर निर्भर रहेगी । यज्ञ दर्शन को अपनाकर ही आज की संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रचण्ड मोर्चा ले सकना सम्भव है । यज्ञ के साथ यही प्रेरणा जुड़ी है कि मन:क्षेत्र में घुसी निकृष्टता का निराकरण हो, व्यक्ति महान् एवं समाज सुसंस्कृत बने ।

 

यज्ञ का अर्थ मात्र अग्निहोत्र नहीं, शास्त्रों में जीवन अग्नि की दो शक्तियाँ मानी गई है – एक ‘स्वाहा’ दूसरी ‘स्वधा’। ‘स्वाहा’ का अर्थ है- आत्म-त्याग और अपने से लड़ने की क्षमता । ‘स्वधा’ का अर्थ है- जीवन व्यवस्था में ‘आत्म-ज्ञान’ को धारण करने का साहस यज्ञ से ही मिलता हैं । लौकिक अग्नि में ज्वलन और प्रकाश यह दो गुण पाये जाते हैं । इसी तरह जीवन अग्नि में उत्कर्ष की उपयोगिता सर्वविदित है । आत्मिक जीवन को प्रखर बनाने के लिए उस जीवन अग्नि की आवश्यकता है । जिसे ‘स्वाहा’ और ‘स्वधा’ के नाम से, प्रगति के लिए संघर्ष और आत्मनिर्माण के नाम से पुकारा जाता है ।

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