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विचार मंथन : मौत को गर्व के साथ वरण करने वाले कुछ ही शूरवीर लोग होते है, मृत्यु से डर कैसा..?- युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा

locationभोपालPublished: Sep 22, 2018 05:45:31 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

मौत को गर्व के साथ वरण करने वाले कुछ ही शूरवीर लोग होते है, मृत्यु से डर कैसा..?
युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा

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विचार मंथन : मौत को गर्व के साथ वरण करने वाले कुछ ही शूरवीर लोग होते है, मृत्यु से डर कैसा..?- युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा

दिन के प्रकाश का विलुप्त होने और रात्रि को अंधकार के आगमन की घड़ी का आ धमकना सामान्यतः घाटे का सौदा प्रतीत होता है, किन्तु इसके साथ ही सूर्य के कान्ति हीन होने, उसके विश्राम करने और पुनः नयी ज्योत्सना साथ उदय होने की आशा भी रहती है । काल निशा में विश्राम करने के लिए जीव पुराने शरीर का परित्याग कर जाता है । यह प्रयाण काल ही मौत के नाम से जाना जाता है । सृष्टि सुव्यवस्था के संचालन की विभिन्न क्रियाओं में जन्म और मृत्यु का यह परिवर्तन चक्र एक सहज स्वाभाविक एवं अनिवार्य प्रक्रिया है । उससे बच सकना किसी भी प्राणी के लिए संभव नहीं । मौत को गर्व के साथ वरण करने वाले कुछ ही लोग होते है ।

 

थकान के बाद हरी नींद आने नींद पूरी होने के बाद जाग पड़ने की तरह मरने और पुनः जन्म लेने की क्या सम्भावना नहीं ? कार्योपरान्त थकान मिटाने के लिए विश्राम आवश्यक है । यह न केवल मनुष्य, वरन् समस्त जीवों के लिए अनिवार्य है। प्रकृति चक्र में भी विश्राम की यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में चलती रहती है। दिन भर की थकान के बाद रात्रि को विश्राम किया जाता है। विश्राम की क्रिया शक्तिसंचय की सृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इसी के आधार पर दूसरे दिन नये उल्लास के साथ कार्य किये जाते है ।


अविनाशी जीवात्मा अपनी यात्रा को मौत रूपी स्टेशनों पर ठहरती हुई पूर्ण करती है, अपने गन्तव्य लक्ष्य तक पहुँचती है। जन्म और मृत्यु का यह गति चक्र न होता तो शायद ही जीवात्मा यात्रा सफल हो पाती । मोहासिक्त व्यक्ति को ही मृत्यु से डर लगता है । देख भी जाता है कि लोग मौत का नाम सुनते ही काँपने लगते हैं। इसे अशुभ मानते हैं। किसी सगे सम्बन्धी की होने पर रोते चिल्लाते हैं। स्वयं भी मौत के डर से चिन्तित रहते हैं। जबकि मरण की सुनिश्चितता को जानते हुए भी डरना केवल अविवेक ही कहा जा सकता है। मौत के वास्तविक स्वरूप की जानकारी के अभाव में ही उससे भय लगता है, अन्यथा मौत को हर्षोल्लास के साथ वरण किया जाता ।


महात्मा गाँधी, भगत सिंह, आजाद की तरह हंसते हुए मौत का वरण किया जा सकता है । विवेकानन्द, रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस की तरह मृत्यु को सुखद बनाया जा सकता है । जो भगवान के दरबार में न्याय की परीक्षा के लिए, जीवन कर्मों का विवरण प्रस्तुत करने के लिए, आत्मा-परमात्मा के प्रिय मिलन के लिए सदैव उद्यत रहते है, उन्हें भय किस बात का? डरता तो वह है जो अपने दायित्वों के प्रति लापरवाही बरतता-उदासीन रहता और कुकर्मों में निरत रहते हुए जीवन को यों ही निरर्थक गंवा देता है ।

 

मौत के इस उज्ज्वल पक्ष के दर्शन की जानकारी प्राप्त कर इसकी तैयारी में जुट पड़ना ही जीवन की सार्थकता है । हम जीवन की अवधि 75 वर्ष माने और बचपन 15 वर्ष का समझ, तो कार्य करने के लिए 60 वर्ष ही बचते हैं । यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है कि ऐसे ही निरर्थक कामों में उसे व्यतीत कर दे या ऐसा कुछ करें जिससे आत्म संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह की उपलब्धि हो सके । मृत्यु तो अनिवार्य है, उसे याद रखना एक प्राकृतिक चेतावनी अपनाना है, जिसका अर्थ होता है-जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग समय रहते कर लिया जाए ।

 

मृत्यु उतनी भयावह नहीं जितना कि लोगों ने इसे समझा है। मृत्यु से डरने की अपेक्षा इसकी सुनियोजित तैयारी करने की आवश्यकता है। इस सत्य को समझकर जीवन व्यवहार में परिष्कार-परिमार्जन प्रारम्भ कर दिया जाए तो कोई कारण नहीं कि मृत्यु का भय बना रहे। अपने चरित्र का आधार लेकर सत्कर्मों में संलग्न व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूर्ण करता रहे। यही जीवन यात्रा का सच्चा मार्ग है। कर्तव्य परायणता में ही वास्तविक सुख और शान्ति सन्निहित है। इन्हें पालन कर मौत से तो नहीं पर उसे भय से निश्चय ही बचा जा सकता है।

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