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विचार मंथन : होलिका का यह मंगल पर्व घर हो या पड़ोस होलिका के नफरत भरे ढोंग को पनपने न दें- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

locationभोपालPublished: Mar 19, 2019 05:25:54 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

बुरा न मानो होली है, तब फिर बुरा मानने की क्या जरूरत है- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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विचार मंथन : होलिका का यह मंगल पर्व घर हो या पड़ोस होलिका के नफरत भरे ढोंग को पनपने न दें- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

होली के दिन घर-आँगन, चौबारे, गलियारे में अनेक रंगों की धूम रहती है । होली के उल्लास में उमड़ते इन रंगों में कई चिंतन के रंग भी शामिल होते है । जिनसे तन नहीं मन भीग रहा होता है । परिस्थिति एवं परिवेश को तनिक गहराई से देखेंगे तो इन रंगों का अनुमान होगा, और अपने आप में उतरेंगे तो चिंतन के इन रंगों की चटख और शोख छटा नजर आयेगी । इनमें उल्लास के साथ विषाद का भी पुट नजर आयेगा । खुशी के साथ गम भी दिखाई देगा और हँसी के साथ रुदन भी यहाँ बिखरे दिखाई देंगे । चिंतन के इन रंगों में सारी इन्सानी जिन्दगी का वजूद आ सिमटा है । कई -क्या? क्यों? कैसे? और किसलिए? की पिचकारियाँ हमारे ऊपर आपके ऊपर इन रंगों को उड़ेल रही है । जो भी विचारशील हैं उनमें से कोई चिंतन के रंगों की इस फुहार से बच नहीं सकता ।

 

होली की एक सुप्रसिद्ध कहावत है- ‘बुरा न मानो होली है ।’ तब फिर बुरा मानने की क्या जरूरत है । आप भी हमारे साथ भीगिये इन चिंतन के रंगों में और मित्रों-परिचितों को भी बचने न दीजिए, उन्हें भी भिगोइए इन गाढ़े रंगों में । सदस्य परिवार के हों या पड़ोस के कोई भी छूटने न पाये । हम आप और सभी विचारशील जन मजबूती से थाम लें अपनी पिचकारियाँ और उड़ेलें चिंतन के रंग एक-दूसरे पर । हमारी, हम सबकी विचारशीलता में विमर्श पैदा हो, मतों में दुराग्रह की बजाय पारस्परिक संवाद की स्थिति बने और अन्ततः समाधान जन्म ले । तभी तो उल्लास में सार्थकता आएगी ।

 

सहस्राब्दियाँ, शताब्दियां बीत गयी हमें होली मनाते । कई रंग देखें हैं हम सबने । कई गीत गाये हैं हमने । कई धुनें छेड़ी है । कई रंगों और कई तालों ने हमारी जिन्दगी को लय दी है। वैदिक ऋचाओं की गूँज और सामगान की सुमधुर ध्वनि के साथ होली मनाना शुरू किया था हमने । अपने आचरण और कर्त्तव्यनिष्ठ, प्रचण्ड तप और अविराम साधना से हमीं ने जिन्दगी को ऐसा गढ़ा था कि देवता भी हमारे घर-आँगन में आकर हम सबसे होली खेलते थे । देवत्व हमारी निजी जिन्दगी की परिभाषा थी । स्वर्ग हमारी सामाजिक जिन्दगी का सच था । ऐसा नहीं था कि इस क्रम में व्यतिक्रम के अवसर नहीं आए । असुरता ने अपनी हुँकार भरी, हिरण्यकश्यपु और होलिका के सहोदर षड़यंत्रों ने हमारे देवत्व और स्वर्ग को मटियामेट करने का कुचक्र रचा । पर हमारे प्रह्लाद-पराक्रम ने आसुरी प्रवृत्ति के इन भाई-बहिन को पनपने नहीं दिया । अपनी ही नफरत की आग में होलिका जल मरी । भगवान नृसिंह ने असुरता का वक्ष विदीर्ण कर दिया और होली के गीत-प्रह्लाद की भक्ति की थिरकन के साथ गूँज उठे ।

 

प्रेम का स्वाँग भरे होलिका आज भी नफरत फैला रही है । घर-परिवार की टूटन, जाति-वंश का भेद, सम्प्रदायों और धर्मों की दीवारें, भाषा और क्षेत्र के विभाजन इन नफरत को बढ़ावा दे रहे हैं । चतुर होलिका हमारे-हम सबके प्रह्लाद-पराक्रम के अभाव में सफल है । सवाल हमसे है और आप से भी कि आखिर कहाँ खो गयी वह साधना, प्रचण्ड तप करने का वह पुरुषार्थ, जिस पर रीझकर भगवान नृसिंह हमारे-हम सबके अन्तःकरण में अवतरित हो सके । ध्यान रहे- भगवान केवल भक्तों और तपस्वियों को वरदान देते हैं । भावसंवेदना की सघनता और पुरुषार्थ की प्रचण्डता ही प्रभु के वरदान की अधिकारी बनती है । निष्ठुर और कायर तो सदा ही दुःख भोगते आये हैं ।

 

शुरुआत आज से और अभी से करें । संकल्पित हों कि होलिका का यह मंगल पर्व हमारे जीवन में एक नयी क्रान्ति लाए । घर हो या पड़ोस होलिका के नफरत भरे ढोंग को पनपने न दें । सघन संवेदना ही नफरत फैलाने वाली होलिका का समर्थ उत्तर है । उल्लास के रंगों को तो भरपूर बिखेरे पर व्यंग्य और बुराई का कीचड़ न उछलने दें । जीवन में जूझने का हौसला पैदा करें । निराशा-हताशा और थकान क्यों? जब भगवान् नृसिंह स्वयं हम पर कृपा करने के लिए तैयार हैं तो आखिर डर और भय किसलिए । सघन संवेदना और प्रचण्ड पराक्रम के रंगों से ऐसी होली खेलें कि नफरत की होलिका अपने ही षड़यंत्र में जल कर राख हो जाए और भय और आतंक को फैलाने वाला हिरण्यकश्यपु की छाती खुद भय से फट जाय। इस होली पर अपने चिंतन और आचरण से सिद्ध करें कि हम भगवान् नृसिंह के भक्त है प्रह्लाद के अनुगामी हैं । और हममें बरसाने में होली के रंगों की छटा बिखेरने वाले गीता गायक कृष्ण के उपदेशों पर चलने का साहस है ।

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