इसलिए इस छाया के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उसकी ओर से पीठ फेरनी चाहिए और सोचना चाहिए कि हम कौड़ियों के लिए क्यों मारे-मारे फिर रहे हैं, जब कि हमारे अपने घर में भंडार भरा हुआ है। अंतर में मुँह देखने पर, परमात्मा के निकट उपस्थित होने पर, वह ताली मिल जाती है, जिससे सुख और शांति के अक्षय भंडार का दरवाजा खुलता है ।
अपनी वास्तविक स्थिति को जानने से, आत्मस्वरूप को पहचानने से, संसार के स्वरूप का सच्चा ज्ञान होने से, शांति की शीतल धारा प्रवाहित होती है, जिसके तट पर असंतोष की ज्वाला जलती हुई नहीं रह सकती। सच्चा संतोष उपलब्ध हो पर उसकी बाह्य आवश्यकताएँ बहुत ही थोड़ी रह जाती हैं और जब थोड़ा चाहने वाले को बहुत मिलता है, तो उसे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है ।