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विचार मंथन : मल मूत्र की गठरी देह में आत्मा की अवधि पूरी होने पर मोह कैसा- ऋषि शुकदेव जी

locationभोपालPublished: Jan 01, 2019 04:10:22 pm

Submitted by:

Shyam

मल मूत्र की गठरी देह में आत्मा की अवधि पूरी होने पर मोह कैसा- ऋषि शुकदेव जी

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विचार मंथन : मल मूत्र की गठरी देह में आत्मा की अवधि पूरी होने पर मोह कैसा- ऋषि शुकदेव जी

मरने से डरना क्या ?

राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए जब शुकदेव जी को 6 दिन बीत गये और सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ । कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था । शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई-राजन् बहुत समय पहले की बात है एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया । संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई, वर्षा भी होने लगी, सिंह व्याघ्र दहाड़ने लगे । राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा । कुछ दूर पर उसे दीपक दिखाई दिया । वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिये की झोपड़ी देखी । वह चल फिर नहीं जा सकता था इसलिए झोपड़ी में ही एक ओर उसने मल मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था । अपने खाने के लिए जानवरों का माँस उसने झोपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अँधेरी और दुर्गन्ध युक्त वह कोठरी थी । उसे देखकर राजा पहले तो ठिठका, पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी कोठरी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की ।

 

बहेलिये ने कहा- आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते है और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते है । इस झोपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी में रहने की कोशिश करते है और अपना कब्जा जमाते है । ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ । अब किसी को नहीं ठहरने देता । आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा । राजा ने प्रतिज्ञा की-कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोपड़ी को अवश्य खाली कर देगा । उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है । सिर्फ एक रात ही काटनी है ।

 

बहेलिये ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया, पर दूसरे दिन प्रातःकाल ही बिना झंझट किये झोपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दुहरा दिया । रजा एक कोने में पड़ा रहा, रात भर सोया । सोने में झोपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सबेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा । राज काज की बात भूल गया और वही निवास करने की बात सोचने लगा । प्रातःकाल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया । झंझट बढ़ा उपद्रव और कलह कर रूप धारण कर लिया । राजा मरने मारने पर उतारू हो गया । उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा ।

 

शुकदेव जी ने पूछा- परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था ? परीक्षित ने कहा- भगवान वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए । वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गन्दी कोठरी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था । उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है । शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है । इस मल मूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई । अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था । इस पर भी तू झंझट फैला रहा है । मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है । क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है ।

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