बहेलिये ने कहा- आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते है और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते है । इस झोपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी में रहने की कोशिश करते है और अपना कब्जा जमाते है । ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ । अब किसी को नहीं ठहरने देता । आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा । राजा ने प्रतिज्ञा की-कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोपड़ी को अवश्य खाली कर देगा । उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है । सिर्फ एक रात ही काटनी है ।
बहेलिये ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया, पर दूसरे दिन प्रातःकाल ही बिना झंझट किये झोपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दुहरा दिया । रजा एक कोने में पड़ा रहा, रात भर सोया । सोने में झोपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सबेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा । राज काज की बात भूल गया और वही निवास करने की बात सोचने लगा । प्रातःकाल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया । झंझट बढ़ा उपद्रव और कलह कर रूप धारण कर लिया । राजा मरने मारने पर उतारू हो गया । उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा ।
शुकदेव जी ने पूछा- परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था ? परीक्षित ने कहा- भगवान वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए । वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गन्दी कोठरी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था । उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है । शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है । इस मल मूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई । अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था । इस पर भी तू झंझट फैला रहा है । मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है । क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है ।