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विचार मंथन : जो मनुष्य मन, इन्द्रियों को वश में कर ब्रह्म के सर्वोत्तम नाम ॐ का जप करता हैं, उसे मिलता हैं परम पद – आचार्य श्रीराम शर्मा

Published: Sep 08, 2018 03:33:05 pm

Submitted by:

Shyam Shyam Kishor

परब्रह्म परमात्मा का सर्वोत्तम नाम हैं ” ॐ ” ।
युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा

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विचार मंथन : जो मनुष्य मन, इन्द्रियों को वश में कर ब्रह्म के सर्वोत्तम नाम ॐ का जप करता हैं, उसे मिलता हैं परम पद – आचार्य श्रीराम शर्मा

ब्रह्म का सर्वश्रेष्ठ नाम ‘ॐ’

” ओम् ” परमात्मा का सर्वोत्तम नाम है । वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का नाम ” ॐ ” ही बताया गया है । यजुर्वेद 40 वें अध्याय के 15 वें मंत्र का एक अंश है- ” ॐ स्मरा ” अर्थात् ओम् का स्मरण कर । गीता में गीताकार ने ओम् इत्येकाक्षरं ब्रह्म अर्थात् एकाक्षरी ” ॐ ” को ही ब्रह्म कहा है । तैत्तरीयोपनिषद् में ” ओम् इति ब्रह्म ” ओम् को ब्रह्म बताया है । आगे चलकर वहीं ओम् इति सर्वम् पद आता है, जिसमें सर्वव्यापी परमात्मा को ओम् कहा गया है ।


माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है- ओमित्येतदक्षरम् इदं सर्वं तस्यो पव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । ” ओम् ” वह अक्षर है, जिसमें संपूर्ण भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् ओंकार का छोटा सा व्याख्यान है । सभी शक्तियाँ, ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ इस ओंकार में भरी हुई हैं ।


छान्दोग्य उपनिषद् में ” ओम् ” की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा गया है – ओम् अक्षर उद्गीथ है । अतः उसकी उपासना करनी चाहिए । सब भूतों का रस, सार पृथ्वी है । पृथ्वी का रस जल है । जल का सार औषधियाँ हैं। औषधियों का सार मानव देह है । मानव देह का सार वाणी है । वाणी का ऋचा-वेद है। ऋचा का सार सामवेद द्वारा भगवान् का यशोगान हैं । सामवेद का सार उद्गीथ है, वह सब रसों में से रसतम, सारतम, सर्वोत्तम हैं ।


कठोपनिषद् में यमराज ने नचिकेता को ओंकार की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है-
सारे वेद जिस भगवान् का वर्णन करते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिए साधक सभी तप करते हैं, जिसकी इच्छा से मुमुक्षु जन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को मैं संक्षेप में कहता हूँ । ” ओम् ” यही वह पद कहा गया है। यहीं ” ओम ” सब का श्रेष्ठ अवलम्बन है। यही सर्वोत्कृष्ट अवलम्बन है। इसी शक्तिपूर्ण शब्द का सहारा लेकर जीव ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है ।


” ओम् ” की शक्ति अपार है । इसके उच्चारण से मनुष्य में शुद्ध सात्त्विक दैवीभाव उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ओम् परब्रह्म का शक्तिदायक नाम है । विराट्, अग्नि, विश्व आदि परमात्मा के नाम ‘अ’ के अंतर्गत हैं हिरण्यगर्भ, वायु, तेजस् आदि ‘उ’ के अन्तर्गत हैं तथा ईश्वर आदित्य और यज्ञादि परमात्मा के नाम मकार से जाने जाते हैं ।


जिसका सहारा ” ओम् ” हैं, उसके पास अनन्त दैवी शक्तियाँ हैं, बल है, बुद्धि है, जीवन है, इन्द्रियों का संयम है । गीता के आठवें अध्याय के 13 वे श्लोक में लिखा है-


ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥


अर्थात्- जो साधक मन एवं इन्द्रियों को वश में कर ” ओम् ” अक्षर ब्रह्म का जप करता है, वह ब्रह्म का स्मरण करता हुआ इस भौतिक देह को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है । इस पद को प्राप्त करने के उपरान्त जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।


इसलिए प्रत्येक मनुष्य को परब्रह्म परमात्मा के इस वैदिक नाम ” ओम् ” का प्रतिदिन जप करना चाहिए, क्योंकि स्थूल, सूक्ष्म और कारण जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है, उसका संचालन ‘ओंकार’ की ही स्फुरणा से हो रहा है । यही प्रणव का अर्थ भी है ।

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