चन्द्र के पास स्वयं का प्रकाश नहीं है । फिर भी वह दूसरे का तेज उधार लेकर अपने को आलोकित करता हैं । सच्चे सेवक को साधन का अभाव कभी नहीं खटकता ।
हमारी शक्ति बहुत थोड़ी है, इसलिए हमसे क्या सेवा हो सकेगी । क्या तुम ऐसा सोचते हो ? नहीं, नहीं, ऐसा कभी मत सोचो । आकाश के तारों की ओर देखों । ब्रह्माण्ड की तुलना में कितने अल्प हैं, फिर भी यथाशक्ति सेवा करने- भूमण्डल को प्रकाशित करने – लाखों की संख्या में प्रकट होते है और अमावस्या की अँधेरी रात में अनेकों का पथ -प्रदर्शन करते हैं ।
थक कर, ऊब कर सेवा क्षेत्र का त्याग करने का विचार कर रहे हो ? तुम्हारे सामने बहने वाली इस सरिता को देखों । उद्गम से सागर तक संगम होने तक कभी मार्ग में वह रुकती है ? ‘सतत कार्यशीलता’ यही उसका मूल मंत्र हैं । मार्ग में आने वाले विघ्नों से वह डरती नहीं तो तुम क्यों साधारण संकटों एवं अवरोधों से घबराते हो ? वह नदी कभी ऊँच-नीच का भाव जानती ही नहीं । मनुष्य मात्र ही नहीं, पशु-पक्षी या वनस्पति सबकी निरपेक्ष सेवा करना ही वह अपना धर्म समझती हैं । सेवक के लिए कौन ऊँच और कौन नीच ?
‘इन अज्ञानी लोगों की क्या सेवा करें ? इनका सुधरना असम्भव है’ ऐसा मत सोचो । देखो कीचड़ में यह कैसा सुन्दर कमल खिला है ? तुम भी अज्ञान के कीचड़ में कमल के समान खिलकर कीचड़ की सुरभि पैदा करो, सच्चे सेवक की यही कसौटी है ।
-स्वामी विवेकानन्द,