किसी पुस्तक ने ईश्वर को उत्पन्न नहीं किया..
कुछ मन्त्र रट लेने या मन्दिरों में शब्दाडम्बर करने से मुक्ति नहीं मिलती, परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन कुछ काम नहीं आते, उसके लिये आन्तरिक सामग्री की जरूरत है । इससे कोई यह न समझलें कि बाहरी साधनों का मैं विरोधी हूँ । आरम्भ में उनकी आवश्यकता होती ही है पर साधक जैसा-जैसा उन्नत होता है, वैसी-वैसी उसकी उस ओर से प्रवृत्ति कम हो चलती है, आप यह निश्चय समझें कि किसी पुस्तक ने ईश्वर को उत्पन्न नहीं किया किन्तु ईश्वर की प्रेरणा से धर्म पुस्तकों की रचना हुई है ।
जिस दिन परमात्मा का अनुभव कर लेंगे..
यही बात जीवात्मा और परमात्मा का ऐक्य कर देने का है । यही विश्वधर्म है । कल्पना और मार्ग भिन्न – भिन्न होने पर भी सबका केन्द्र एक ही है । सब धर्मों का मूल्य क्या है? ऐसा यदि कोई मुझ से प्रश्न करे तो मैं उसे यही उत्तर दूँगा कि ‘आत्मा की परमात्मा से एकता कर देना ही सब धर्मों का मूल है । सच्ची दृष्टि से छाया के समान देख पड़ने वाले और इंद्रियों से अनुभव होने वाले इस जगत में जिस दिन परमात्मा का अनुभव कर लेंगे उसी दिन हम कृतकार्य होंगे तब हमको इस बात के विचार करने की आवश्यकता न होगी कि हमें यह दसा किस मार्ग से प्राप्त हुई है । आप चाहे किसी मत को स्वीकार करें, या न करें किसी मत या पन्थ के कहावें या न कहावें परमेश्वर का अस्तित्व अपने आप में अनुभव करने से ही आपका काम बन जायगा ।
परमात्मा की स्पष्ट कल्पना भी..
कोई मनुष्य संसार के सब धर्मों पर विश्वास करता होगा, संसार के सब धर्म ग्रन्थ उसे कंठस्थ होंगे, संसार के सब तीर्थों में उसने स्नान किया होगा । तो भी यह सम्भव नहीं है कि परमात्मा की स्पष्ट कल्पना भी उसके हृदय में हो ! इसके विपरीत सारे जीवन में जिसने एक भी मन्दिर या धर्मग्रन्थ नहीं देखा और न उसमें लिखी कोई विधि ही की होगी, ऐसा पुरुष परमात्मा का अनुभव अन्तःकरण में करता हुआ देख पड़ना सम्भव है ।