स्वभाव से कोई कैसे छूट सकता है! तुम स्वभाव को विस्मृत कर सकते हो, विनष्ट नहीं। दुख बहिर्यात्रा है जबकि आनंद अंतर्यात्रा।
आनंद अंतर्यात्रा
आनंद तुम्हारा स्वभाव है। आनंद तो तुम लेकर ही आए हो। अभी भी जब तुम दुख से भरे हो, जब तुम्हारे चारों तरफ दुख की छाया हैं, तब भी तुम्हारे अंतरतम में आनंद का झरना ही बह रहा है। उससे छूटने का कोई उपाय ही नहीं है। स्वभाव से कोई कैसे छूट सकता है! भूल सकते हो स्वभाव को, विस्मृत कर सकते हो स्वभाव को, विनष्ट नहीं। आनंद भीतर जाने से मिलता है। दुख बाहर जाने से। दुख बहिर्यात्रा है। आनंद अंतर्यात्रा।
दृष्टिकोण
भक्ति या आत्मीयता कर्म द्वारा ही साकार होती है। गीता कहती है कि निष्क्रियता संभव भी नहीं है और उचित भी नहीं है। लोग कर्म टालते हैं या टालना चाहते हैं क्योंकि कर्म उन्हें मन से थका देते हैं। बार-बार एक ही काम करना उन्हें ज्यादा थका देता है। जिस काम में बुद्धि को या मन को आनंद नहीं आता, ऐसे काम करना इंसान को अच्छा नहीं लगता। गीता में जिस कर्मयोग की चर्चा है, वह कर्म की ओर देखने का एक दृष्टिकोण है।