धर्म और अध्यात्म

भगवान से मिलने का जरिया है धर्म, ऐसे करें अपने धर्म का पालन

धर्म न साम्प्रदायिक है और न किसी के द्वारा प्रतिपादित है। धर्म को तो सनातन कहा गया है।

Feb 03, 2018 / 02:50 pm

सुनील शर्मा

how to worship

हमारी संस्कृति में आत्मा को शुद्ध माना गया है। स्वभावत: शुद्ध आत्मा कर्म रुपी विभाव के कारण अशुद्ध हो जाता है। कर्म की चादर से आच्छादित आत्मा बंधनग्रस्त होता है। कर्म के पाश में जकड़ी यह आत्मा अमृतरुपी धर्म से शुद्ध होती है। धर्म अमृत रूप है। धर्म अमरत्व का द्योतक है। आत्मा उत्पत्ति और विकास से परे है यानी अमरत्व रूप है। आत्मविकास साध्य है। इस साध्य का साधन भी ऐसा ही होना चाहिए अर्थात आत्मविकास का आधार शाश्वत धर्म है।
धर्म के हैं अनेक अर्थ
जो तत्त्व व्यक्तियों के चारित्र और नैतिक भावनाओं को परिष्कृत करे तथा उनमें कत्र्तव्य की भावना को विकसित करे, वही वास्तविक धर्म है। वैशैषिक दार्शनिक कणाद के अनुसार धर्म से इस लोक का कल्याण और आत्मा के विकास अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म के वैयक्तिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर कहा जा सकता है कि जो तत्त्व मानव कल्याण की साधना में सहायक है, जिनके द्वारा मनुष्य सदैव अभय और आत्मशांति का अनुभव करे, जिससे वास्तविक संतोष, वैभव और सुयश प्राप्त हो उसी को धर्म कहते हैं।
धर्म की दोषपूर्ण अभिव्यक्ति
धर्म की दोषपूर्ण अभिव्यक्ति अधर्म के कई रूप है। हम इन्हें विधर्म, परधर्म, उपधर्म, छलधर्म कहते है। विधर्म यानी किसी भी ऐसे कार्य से है जो एक व्यक्ति के धर्म का विरोधी हो। परधर्म का तात्पर्य ऐसा कार्य करने से है जो उस व्यक्ति के लिए नहीं वरन् अन्य व्यक्तियों के लिए निर्धारित किया गया है। उपधर्म में हम उन विचारों को सम्मिलित करते हैं जो निर्धारित आचार-नियमों के विरूद्ध हो। छल हमारे आचरणों का वह रूप जो धर्म का वास्तविक अंग नहीं होते बल्कि धर्म के नाम पर अधर्म को प्रोत्साहित करता है।
इसी से आते हैं शांति और अनुशासन
धर्म से सभी प्रकार की व्यवस्थाएं संचालित होती है। धर्म के कारण ही शांति और अनुशासन होता है। धर्म ही सृष्टि का आधार है। सृष्टि भी धर्म से संचालित होती है। जो तत्त्व संपूर्ण संसार के जीवन की धारणा करता हो, जिसके बिना संसार में व्यक्ति की स्थिति संभव न हो तथा जिससे सभी कुछ व्यवस्थित बना रहे, वही धर्म है। धर्म प्रजा को धारण करता है अर्थात् धर्म से शांतिपूर्वक प्रजा की पालना होती है। ‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम्’ यानी धर्म का मूल आधार संपूर्ण वेद है। कहते हैं कि पृथ्वी धर्म द्वारा धारण की गई है।
इससे ही आत्मविकास संभव
आचार्य महाप्रज्ञ ने आत्मा के तीन रूप माने हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। धार्मिक आचरण की प्रकृष्टता से उत्तरोतर आत्मविकास का बोध होता है और वह बोध होते-होते परमात्मा पर जाकर रूक जाता है। मनु ने परमात्मा को बोध कराने वाले धर्म के दस लक्षणों का उल्लेख किया है। इनके आचरण से भक्त भगवान को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में आत्मा और ब्रह्म की एकरूपता आसानी से व्याप्त हो जाती है।
उपदेश के लिए नहीं, जीवन में उतारने के लिए है धर्म
धर्म प्रदर्शन के लिए नहीं, आचरण के लिए है। धर्म उपदेश के लिए नहीं, जीवन में उतारने के लिए है। धर्म प्रशस्ति के लिए नहीं प्रस्तुति के लिए है। जो मानवता की या मनुष्य धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। ‘धर्मों रक्षति रक्षिता:’ धर्म न साम्प्रदायिक है और न किसी के द्वारा प्रतिपादित है। धर्म तो सनातन है। जैन धर्म में धर्म को आत्मा की शुद्धि का साधन माना गया है। भतृहरि तो यहां तक कहते हैं कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु में समान है। धर्म ही उनको अलग करता है। धर्म से रहित मनुष्य पशु के समान है।
कहा है ‘धर्मेण हीना पशुभि: समाना। धर्म में न कोई भेदभाव है, न छूआछूत है, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, मजदूर-किसान, स्वामी-दास का कोई भेद नहीं है। धर्म स्थायी, निश्चल तथा सदा स्थिर रहने वाला है। धर्माचरण से संपूर्ण वसुधा अपना कुटुम्ब है ऐसा बोध होता है। सब अपने हैं, कोई पराया नहीं है अर्थात जहां धर्म है वहीं विजय है। धर्म और विजय भी अद्वैत की पोषक है। शास्त्रकारों ने कई दृष्टियों से धर्म की प्रशंसा की है। महाभारत में कहा गया है- ‘न हि सत्यात् परो धर्म:’ अर्थात सत्य से परे कोई धर्म नहीं है। ‘सर्वं सत्यो प्रतिष्टितम्’ अर्थात् सबकी प्रतिष्ठा सत्य में ही निहित है।

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