अच्छा जीवन देगा मूच्र्छा त्याग
मूच्र्छा का दूसरा नाम आसक्ति है। भगवान महावीर कहते हैं कि जब तक मूच्र्छा रहेगी तब तक परिग्रह बना रहेगा और जब तक परिग्रह रहेगा तब तक आसक्ति रहेगी। जब तक आसक्ति रहेगी तब तक इच्छाएं उद््दाम रूप लेती रहेंगी। जब तक इच्छाएं बढ़ती रहेंगी तब तक संसार में व्यक्ति भटकता रहेगा। व्यक्ति अर्थ के पीछे भागता है। अर्थ में उसकी आसक्ति होती है। वह सोचता है कि अर्थ के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अर्थ ही जीवन है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
मूच्र्छा का दूसरा नाम आसक्ति है। भगवान महावीर कहते हैं कि जब तक मूच्र्छा रहेगी तब तक परिग्रह बना रहेगा और जब तक परिग्रह रहेगा तब तक आसक्ति रहेगी। जब तक आसक्ति रहेगी तब तक इच्छाएं उद््दाम रूप लेती रहेंगी। जब तक इच्छाएं बढ़ती रहेंगी तब तक संसार में व्यक्ति भटकता रहेगा। व्यक्ति अर्थ के पीछे भागता है। अर्थ में उसकी आसक्ति होती है। वह सोचता है कि अर्थ के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अर्थ ही जीवन है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
साधना की पहली सीढ़ी सरलता है
सरलता से तात्पर्य प्रचंडता के अभाव से है। आचार्य कान्तिसागर सूरीश्वर के अनुसार किसान जब बीज बोने जाता है तो खेत को पहले समतल बनाता है। अगर भूमि कठोर हो और समतल आकार में न हो तो क्या किसान उस भूमि में फसल पाने की आशा कर सकता है। इसी प्रकार से साधक को भी ज्ञान और सद्गुण की फसल पाने के लिए पहले अपने हृदय को सरल करना होगा। अभिमान की कठोरता और कषाय (क्रोध, मान, माया एवं लोभ) के कचरे से आत्मा को मुक्त रखना होगा। तभी साधना की यात्रा सफल होगी।
सरलता से तात्पर्य प्रचंडता के अभाव से है। आचार्य कान्तिसागर सूरीश्वर के अनुसार किसान जब बीज बोने जाता है तो खेत को पहले समतल बनाता है। अगर भूमि कठोर हो और समतल आकार में न हो तो क्या किसान उस भूमि में फसल पाने की आशा कर सकता है। इसी प्रकार से साधक को भी ज्ञान और सद्गुण की फसल पाने के लिए पहले अपने हृदय को सरल करना होगा। अभिमान की कठोरता और कषाय (क्रोध, मान, माया एवं लोभ) के कचरे से आत्मा को मुक्त रखना होगा। तभी साधना की यात्रा सफल होगी।
संतोष से इच्छाओं पर अंकुश
वैभव में जितनी आसक्ति होगी, वैभव उतना ही कष्ट देगा। कहते हैं कि वैभव के अर्जन, रक्षण एवं उपयोग सभी में कष्ट होता है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि- रोग रहित शरीर से बढक़र कोई लाभ नहीं है, संतोष से बढक़र कोई धन नहीं है, विश्वास से बढक़र कोई जाति नहीं है और निर्वाण से बढक़र कोई सुख नहीं है। भगवान बुद्ध संतोष को ही सबसे बड़ा धन मानते हैं। कोई व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अर्जन करता जाए किन्तु अर्जन की यात्रा कभी रुकेगी नहीं क्योंकि अर्जन की एक यात्रा सम्पन्न होने पर दूसरी शुरू हो जाएगी और दूसरी के सम्पन्न होने पर तीसरी।
वैभव में जितनी आसक्ति होगी, वैभव उतना ही कष्ट देगा। कहते हैं कि वैभव के अर्जन, रक्षण एवं उपयोग सभी में कष्ट होता है। भगवान बुद्ध कहते हैं कि- रोग रहित शरीर से बढक़र कोई लाभ नहीं है, संतोष से बढक़र कोई धन नहीं है, विश्वास से बढक़र कोई जाति नहीं है और निर्वाण से बढक़र कोई सुख नहीं है। भगवान बुद्ध संतोष को ही सबसे बड़ा धन मानते हैं। कोई व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अर्जन करता जाए किन्तु अर्जन की यात्रा कभी रुकेगी नहीं क्योंकि अर्जन की एक यात्रा सम्पन्न होने पर दूसरी शुरू हो जाएगी और दूसरी के सम्पन्न होने पर तीसरी।
अनासक्ति से ही अध्यात्म संभव
संसार में आने वाले हर व्यक्ति को अर्थ अपनी ओर खींचता है। सही मायने में अर्थ के प्रति जो आसक्ति रखता है वह कभी भी संसार से विरक्त नहीं हो सकता। राजा भतृर्हरि राजपाट से विरक्त हुए क्योंकि उन्होंने संसार के यथार्थ को समझ लिया। उन्हें यह आभास हो गया था कि जब तक संसार एवं संसार की वस्तुओं में आसक्ति रहेगी तब तक अध्यात्म की यात्रा संभव नहीं होगी। अत: पवित्र उद्देश्य के लिए मोह और आसक्ति से कोसों दूर रहना होगा।
संसार में आने वाले हर व्यक्ति को अर्थ अपनी ओर खींचता है। सही मायने में अर्थ के प्रति जो आसक्ति रखता है वह कभी भी संसार से विरक्त नहीं हो सकता। राजा भतृर्हरि राजपाट से विरक्त हुए क्योंकि उन्होंने संसार के यथार्थ को समझ लिया। उन्हें यह आभास हो गया था कि जब तक संसार एवं संसार की वस्तुओं में आसक्ति रहेगी तब तक अध्यात्म की यात्रा संभव नहीं होगी। अत: पवित्र उद्देश्य के लिए मोह और आसक्ति से कोसों दूर रहना होगा।
आंतरिक गुण होते हंै अमूल्य
व्यक्ति की साधना उसकी वह पूंजी होती है जिसका क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता। जैन शास्त्रों में एक कथा आती है कि जब श्रेणिक भगवान महावीर के पास गए और बोले- मेरे पास सब कुछ है किन्तु साधना की शक्ति नहीं है तो उन्होंने पूर्णिया श्रावक से सामायिक (साधना) खरीदने के लिए कहा। राजा गरीब पूर्णिया की झोपड़ी में उसकी साधना (सामायिक) खरीदने गए तो वह बोला- राजन! मैं आपकी प्रजा हूं, आप मेरा सर्वस्व ले सकते हैं किन्तु सामायिक तो आन्तरिक गुण है। बाह्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय हो सकता है किन्तु आत्मिक गुणों का नहीं। मायूस राजा पुन: महावीर के पास गए तो उन्होंने उसे संतोष देते हुए कहा- राजन! सामायिक (साधना) का रास्ता तो दिखाया जा सकता है किन्तु करना तो स्वयं को ही पड़ेगा। अत: साधना स्वयं करनी होगी। उसे कभी खरीदा या बेचा नहीं जा सकता।
व्यक्ति की साधना उसकी वह पूंजी होती है जिसका क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता। जैन शास्त्रों में एक कथा आती है कि जब श्रेणिक भगवान महावीर के पास गए और बोले- मेरे पास सब कुछ है किन्तु साधना की शक्ति नहीं है तो उन्होंने पूर्णिया श्रावक से सामायिक (साधना) खरीदने के लिए कहा। राजा गरीब पूर्णिया की झोपड़ी में उसकी साधना (सामायिक) खरीदने गए तो वह बोला- राजन! मैं आपकी प्रजा हूं, आप मेरा सर्वस्व ले सकते हैं किन्तु सामायिक तो आन्तरिक गुण है। बाह्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय हो सकता है किन्तु आत्मिक गुणों का नहीं। मायूस राजा पुन: महावीर के पास गए तो उन्होंने उसे संतोष देते हुए कहा- राजन! सामायिक (साधना) का रास्ता तो दिखाया जा सकता है किन्तु करना तो स्वयं को ही पड़ेगा। अत: साधना स्वयं करनी होगी। उसे कभी खरीदा या बेचा नहीं जा सकता।
ज्ञान और क्रिया से मिलता मोक्ष
व्यक्ति में ज्ञान हो किन्तु तद्नुरूप क्रिया नहीं हो तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। उमास्वाती के अनुसार ‘ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष:’ अर्थात् ज्ञान और क्रिया ही मोक्ष है। आचार्य जिनभद्रगणि कहते हैं कि ज्यों-ज्यों भाव और क्रिया में आगे बढ़ोगे, त्यों-त्यों आपकी मंजिल छोटी होती जाएगी। राह के कांटे मिटते जाएंगे और अध्यात्म की यात्रा सुगम हो जाएगी। आत्मविकास सभी चाहते हैं और आत्मज्ञान के लिए यदि प्रयास नहीं होगा तो आत्मज्ञान कैसे संभव होगा। अत: ज्ञान और क्रिया में सामंजस्य से ही आत्मिक विकास संभव है। अस्तु अध्यात्म यात्रा सफल तभी हो सकती है जब इच्छाओं को शमित कर, मूच्र्छा को त्यागकर, साधना के महत्व को समझकर तथा संतोष से जीवन का शृंगार कर, ज्ञान एवं क्रिया में सामंजस्य स्थापित हो।
व्यक्ति में ज्ञान हो किन्तु तद्नुरूप क्रिया नहीं हो तो उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। उमास्वाती के अनुसार ‘ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष:’ अर्थात् ज्ञान और क्रिया ही मोक्ष है। आचार्य जिनभद्रगणि कहते हैं कि ज्यों-ज्यों भाव और क्रिया में आगे बढ़ोगे, त्यों-त्यों आपकी मंजिल छोटी होती जाएगी। राह के कांटे मिटते जाएंगे और अध्यात्म की यात्रा सुगम हो जाएगी। आत्मविकास सभी चाहते हैं और आत्मज्ञान के लिए यदि प्रयास नहीं होगा तो आत्मज्ञान कैसे संभव होगा। अत: ज्ञान और क्रिया में सामंजस्य से ही आत्मिक विकास संभव है। अस्तु अध्यात्म यात्रा सफल तभी हो सकती है जब इच्छाओं को शमित कर, मूच्र्छा को त्यागकर, साधना के महत्व को समझकर तथा संतोष से जीवन का शृंगार कर, ज्ञान एवं क्रिया में सामंजस्य स्थापित हो।
– प्रो. सत्यप्रकाश दुबे