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सबकी खुशी और सुख चाहते हैं तो ईर्ष्या छोडिए

Published: Mar 10, 2015 03:44:00 pm

कल शाम हम जिस जगह थे, वहां से तुलना करें और अपनी स्थिति को आज
बेहतर बनाएं

ईर्ष्या का मूल स्रोत है तुलना। जब यह तुलना अस्वस्थ हो जाए तो ईर्ष्या में तब्दील हो जाती है। सही मायनों में ईर्ष्या वह कीड़ा है, जो स्वस्थ इंसान को भी बीमार बना सकता है।

मनुष्य जीवन कितना दुर्लभ है! इस जीवन के महत्व को हम जानते हुए भी समझ नहीं पाते। सेवा, सद्भाव, सहयोग और समन्वय की मंगल-भावनाएं मनुष्य को आंतरिक दृष्टि से समृद्ध बनाती हैं। इसके विपरीत ईर्ष्या ऎसा अवगुण है, जिससे मनुष्य कुंठित होने लगता है। हमें अपने से बेहतर अपने मित्र अथवा पड़ोसी की खुशियां बर्दाश्त करना भी आना चाहिए। उनकी बेहतरी की कामना के साथ उनकी प्रसन्नता में शामिल होना चाहिए, ना कि ईर्ष्या करनी चाहिए।

ईर्ष्या वो कीड़ा है जो इंसान को अंदर ही अंदर खाता रहता है। हर व्यक्ति के जीवन में खुशियों के अवसर सीमित ही होते हैं। ऎसे अवसरों पर व्यक्ति और उसके परिजन खुश होते हैं व मिठाइयां बांटते हैं। पड़ोसी, रिश्तेदार, सहकर्मी व जीवन के अन्य सहयात्री की जिंदगी में भी ऎसे मौके आते हैं तो हम उनको बधाई देकर अपनी खुशियों को दोगुना कर सकते हैं।

विस्तार ही जीवन है और संकोच ही मृत्यु है

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “विस्तार ही जीवन है और संकोच ही मृत्यु है।” ईर्ष्या से भरा व्यक्ति कभी दूसरों की खुशियों में शामिल नहीं हो सकता। मारे जलन के वह अपने आपको एक अदृश्य आग में जलाता रहता है, जबकि उदारमना व्यक्ति दूसरों की उपलब्धियों की मुक्त कंठ से सराहना करता है और उनके मन में अपना स्थान बना लेता है। दरअसल ईर्ष्या एक मनोरोग है। यदि यह रोग किसी को लग जाए तो इसे जड़मूल से समाप्त करने के लिए समय रहते समुचित उपाय कर लेने चाहिए। इस अवगुण की बदौलत उसमें कई दुर्गुण पैदा हो जाते हैं। वह किसी को सुखी देखकर सुखी नहीं हो सकता।

स्वस्थ प्रतिस्पर्घा जीवन का आधार

आज गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के युग में स्वस्थ प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्ण की भावना संजीवनी का काम करती है। स्वस्थ प्रतियोगिता सही मायने में दूसरे व्यक्ति या अन्य संस्थान से नहीं बल्कि खुद से होनी चाहिए। कल शाम हम जिस जगह थे, वहां से तुलना करें और अपनी स्थिति को आज बेहतर बनाएं। इसी प्रकार “सबका साथ, सबका विकास” की भावना सहअस्तित्व के आधार पर सृष्टि में मंगल का संचार करेगी। काश! हम जय शंकर प्रसाद की इन पंक्तियों का अनुसरण कर समाज में सबको सुखी बनाने के लिए कदम बढ़ा लें तो कितना अच्छा हो –

औरों को हंसते देखो तुम,
हंसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।
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