एक बार एक राजा के दरबार में राजकवि ने प्रवेश किया। राजा ने उन्हें प्रणाम करते हुए उनका स्वागत किया। राजकवि ने राजा को आशीर्वाद देते हुए उनसे कहा, ‘आपके शत्रु चिरंजीवी हों।’ इतना सुनते ही पूरी सभा दंग रह गई। यह विचित्र सा आशीर्वाद सुनकर राजा भी राजकवि से नाराज हो गए, पर उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण कर लिया। राजकवि को भी इस बात का भान हो गया कि राजा उनकी बात सुनकर नाराज हो गए है। उन्होंने तुरंत कहा, ‘महाराज क्षमा करें। मैंने आपको आशीर्वाद दिया, पर आपने लिया नहीं।’
राजा ने कहा,‘ कैसे लूं मैं आपका आशीर्वाद?’आप मेरे शत्रुओं को मंगलकामना दे रहे है। इस पर राजकवि ने समझाया, ‘राजन! मैंने यह आशीर्वाद देकर आपका हित ही चाहा है। आपके शत्रु जीवित रहेंगे तो आप में बल, बुद्धि, पराक्रम और सावधानी बनी रहेगी। सावधानी तभी बनी रह सकती है, जब शत्रु का भय हो। शत्रु का भय होने पर ही होशियारी आती है। उसके न रहने पर हम निश्चिंत और लापरवाह हो जाते हैं। इस प्रकार हे राजन! मैंने आपके शत्रुओं की नहीं, आपकी ही मंगलकामना की है। राजकवि के आशीर्वाद का मर्म जानकर राजा संतुष्ट हो गए और उनके आशीर्वाद को स्वीकार किया।