धर्म और अध्यात्म

जीत का उत्सव एक दिन ही क्यों, रोज मनाएं विजयोत्सव

सभी तरह की इंद्रियों को जीतकर हम हर दिन विजय का उत्सव मनाते हुए जीवन को सरल और आनंदमयी बना सकते हैं।

Oct 03, 2017 / 04:46 pm

सुनील शर्मा

girl in meditation

अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में विजयादशमी हम वर्ष मनाते हैं किन्तु आत्मविकास के लिए इन्द्रिय, मन और वाणी आदि पर विजय के लिए प्रतिदिन प्रयास करने चाहिए। क्रोध में डूबने की अपेक्षा क्षमाभाव में निमज्जित होकर आत्मविकास करेंगे तो यह विजय एक दिन की नहीं हमेशा की होगी।
मन, कर्म और वचन पर विजय प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही सही अर्थों में आत्मविजयी कहलाता है। कई धार्मिक गं्रथों में तो आत्मविजय की तुलना परमात्मा की प्राप्ति और सान्निध्य से की है।

हर दिन मनाएं जीत का उत्सव
विजयश्री का वरण सभी करना चाहते हैं। फिर भी लोगों को प्रतिदिन पराजित होते हुए देखा जाता है क्योंकि किसी चीज की इच्छा करना अलग बात है और इच्छा की क्रियान्विति करना अलग। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो यहां तक कहा था कि करने वाला इतिहास निर्माता होता है और सिर्फ कहने वाला इतिहास रूपी रथचक्र के नीचे पिसकर रह जाता है। अत: विजय की इच्छा और एक दिन का विजय महोत्सव महत्त्वपूर्ण नहीं है। आवश्यक है कि विजय के लिए प्रतिदिन प्रयास हो अन्यथा व्यक्ति की इन्द्रियां, व्यक्ति का मन एवं व्यक्ति की वाणी, व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को दुष्प्रभावित करते हैं। किसी कवि ने सही कहा है, ‘आओ मनाएं विजय महोत्सव, एक दिन नहीं हजारों वार अर्थात प्रतिदिन हम मन, वाणी एवं इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें और जीवन का सफल बनाएं।
मन पर नियंत्रण से होता आत्मविकास
कपिल मुनि के अनुसार रजोगुण उत्तेजना और चंचलता प्रदान करने वाला है। भागवत में शुकदेव जी कहते है कि मन रूपी घोड़े अनियंत्रित होकर विपरीत दिशा में भागते हैं। न ही उनका कोई मार्ग होता है, न ही उनका कोई पड़ाव होता है। महर्षि पंतजलि रजो गुण प्रधान मन की चंचलता को अवरुद्ध करने के लिए मन पर विजय प्राप्त करना आवश्यक मानते है। मन पर विजय तभी प्राप्त हो सकती है, जब रजो गुण प्रधान मन को सतोगुण प्रधान करते हुए गुणातीत किया जाए। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार मन का संबंध चित्त से होता है। मन को जीतने के लिए चित्त को साधना बहुत जरूरी हैं। आचार्य श्री ‘मन के जीते जीत’ पुस्तक में कहते हैं कि मन पर नियंत्रण करने से साधना की गति बढ़ती है और आत्मविकास की ओर चरणन्यास होता है।
क्षमाभाव से होता आत्मविकास
क्रोध ऐसा अवगुण है जो सबसे ज्यादा अपने आपको अभिशप्त करता है। कभी-कभी क्रोध मृत्यु तक का कारण बन जाता है। क्रोध के वशीभूत होकर रावण ने सीता माता का अपहरण किया जो उसके समूल विनाश का कारण बना। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि जब क्रोध का संवेग प्रबल हो तो आंख बंद कर बैठ जाना चाहिए। थोड़ी देर बाद गुस्सा स्वयं शांत हो जाएगा और गुस्से से होने वाली हानि से व्यक्ति बच जाएगा। भगवान महावीर ने तो क्षमाभाव के विकास से आत्मविकास पर बल दिया था। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार क्रोध एक ऐसा संवेग है जो व्यक्ति को अनियन्त्रित कर देता है।
अनासक्ति है अंतर्मन की सबसे बड़ी सफाई
आसक्ति जीवन का अवगुण है। आसक्ति में प्राय: अपराध होता है। भागवत में भी कहा गया है कि आसक्ति आत्मा का विभाव है जो इसे आत्मा का भाव समझकर प्रश्रय देता है वह अपने आत्मा की हानि करता है। ऐसा करता हुआ व्यक्ति कभी शान्ति का अनुभव नही कर पाता है। आसक्ति पर विजय अनासक्त चेतना के विकास से संभव है। आचार्य तुलसी के अनुसार आसक्ति मन का मैल है इसे अनासक्ति के शुद्ध जल से साफ किया जा सकता है। लाओत्से ने अपने शिष्यों को सीख देते हुए कहा था कि आसक्ति में डूबने की अपेक्षा अनासक्ति में गोता लगाओ।
वाणी पर नियंत्रण
भगवान बुद्ध कहते हैं कि हित, मित, प्रिय वचन बोलना चाहिए। असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए। कबीर दास जी के अनुसार ‘वाणी ऐसी बोलिए, मन का आप खोय’ अर्थात वाणी ऐसी होनी चाहिए जिससे मन का घमंड दूर हो। अनियंत्रित वाणी द्रोपदी के बोलने से महाभारत जैसे युद्ध की घटना घटित हुई। वाणी पर संयम न होने से शिशुपाल को मरना पड़ा था। अत: वाणी पर नियंत्रण जरुरी है।
इन्द्रियों को जीतना ही सबसे बड़ी विजय
इन्द्रियों का काम है विषयों की ओर भागना। प्रत्येक इन्द्रिय के अपने विषय है। इन्द्रियां उन विषयों के प्रति आसक्त होती है। यह आसक्ति विवेक को समाप्त करती है। नेत्रेन्द्रिय सौन्दर्य की ओर आसक्त होता है तो कर्णेन्द्रिय सुरीले शब्दों की ओर, घ्राणेन्द्रिय सुगंध की ओर, रसनेन्द्रिय स्वाद की ओर, त्वगेन्द्रिय सुंदर स्पर्श की ओर। इन्द्रियों के वशीभूत होकर जिसने भी कर्म किए उनका पतन निश्चित हुआ है। पतंगा अग्नि की ओर भागता है तो उसका हश्र उसके विनाश के रूप में होता है और भ्रमर पुष्प की ओर आकृष्ट होता है और पुष्पपराग के पान में इतना मदमस्त हो जाता है कि उसे कुछ भी ध्यान नहीं रहता और अन्त में रात्रि के समय पुष्प की पंखुड़ी बंद होने से कैद में पड़ा रहता है। कई गं्रथों के अतिरिक्त भगवद् गीता में निष्काम कर्म के लिए इन्द्रिय निग्रह को आवश्यक माना गया है। प्राचीन संर्दभों में भी देखा जाए तो महर्षि पंतजलि ने भी सम्यक योग के लिए इन्द्रिय विजय पर बल दिया है।

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