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स्पंदन: विषय भेद

Published: Jan 21, 2018 02:23:45 pm

Submitted by:

Gulab Kothari

भेदाभेद दृष्टि के लिए एकमात्र आवश्यकता या अनिवार्यता तो यह है कि व्यक्ति स्वयं विषय से अलग रहकर देखने का अभ्यास करे।

hindu kirtan

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जीवन में व्यक्ति सुख की तलाश में जिन-जिन विषयों के पीछे भागता है, उनमें से कोई भी विषय सुख का कारक नहीं बन पाता। फिर हमें वह सुख देने वाला क्यों लगता है? व्यक्ति धन के पीछे दौड़ता है और उसको घर में भी नहीं रखना चाहता। धन का भोग करना आसान बात नहीं है। यह भी एक तपस्या है। सम्यक् ज्ञान के बिना धन के प्रति दृष्टि भी सम्यक् नहीं हो सकती। अत: धन ही नाश का मुख्य कारण बन जाता है। जीवन में शक्ति का बोध कराने वाली सभी उपलब्धियां माया का ही तो विवर्त हैं।
भेद की परिभाषा
माया जड है। सत-रज-तम रूप में तीनों का प्रभाव भी चेतना को ढंकना ही है। यह आवरण ही भेद का कारण है। यही माया है, जो यथार्थ को ढंक कर रखने वाली है। इसकी उपस्थिति ही भेद-दृष्टि है। भेद की सारी परिभाषाएं इस आवरण पर लागू हो जाती हैं। भेद यानि तोडऩा, विभक्त या विमुक्त करना, छिद्रण/ भंग करना, भिन्नता पैदा करना, बुद्धि भेद कारक, विश्वासघात, प्रकार/किस्म, द्वैतवाद, पराजय, शत्रु में फूट डालना आदि। इन सबका एक ही कारण है-यथार्थपरक, सम्यक् दर्शन का अभाव। स्वयं से दूर, बाहर जीने वाला, संकल्प-विकल्प में अटकने वाला, स्मृति-कल्पना से घिरा रहने वाला, विषयों को उनके साथ जुडक़र देखने वाला, आसक्ति, ममकार, अहंकार युक्त व्यक्तित्व भेद-दृष्टि का पोषक होता है। जब तक माया का आवरण है, इससे व्यक्ति बाहर कैसे निकल सकता है?
भेद का नाम ही रहस्य है। रहस्य का अर्थ भी छुपा हुआ या ढंका हुआ है। हमारा जीवन, निजी, सामाजिक, राष्ट्रीय सारा ही रहस्यपूर्ण है। हम सब मुखौटे लगाकर जीने के आदी हो गए। हम भी नहीं चाहते, कोई हमारी सच्चाई को जाने। राष्ट्रों में रहस्यभेदी दल, अस्त्र-शस्त्र तक तैयार कर रखे हैं।
भेद दृष्टि
भेदाभेद दृष्टि के लिए एकमात्र आवश्यकता या अनिवार्यता तो यह है कि व्यक्ति स्वयं विषय से अलग रहकर देखने का अभ्यास करे। इन्द्रियां भी विषय तक जाकर लौट आएं। पूरी जानकारी कर ले, किन्तु विषय का अंग नहीं बने। विषय में आसक्त न हो। आसक्त होते ही यथार्थ से अलग हो जाता है। आसक्ति स्वयं आवरण बन जाती है। यह तब होता है जब सम्यक् ज्ञान के अभाव में व्यक्ति भेद-दृष्टि से निर्णय कर लेता है। यह अच्छा है, यह बुरा है। यह छोटा है, यह बड़ा है। चाहे व्यक्ति हो, कार्य हो, परिस्थिति या स्थान हो। सबके प्रति यही भाव भेद पैदा कर देता है। जबकि भेद होता ही नहीं है। न कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा होता है, न कोई कार्य अच्छा या बुरा होता है तथा स्थिति भी जो होती है, वो होती है।
जब तक आप किसी व्यक्ति को एक व्यक्ति की तरह देखते हैं, तब वह हर बार नया भी लगता है। चाहे घर का नित्य मिलने वाला सदस्य ही हो। जब आप उसे भेद दृष्टि से देखेंगे, तब वह आपके मन के निर्णय के अनुसार अच्छा या बुरा दिखाई देगा। आपका व्यवहार भी उसी अनुरूप होगा। और वह व्यवहार सही नहीं होगा। अच्छा लगने वाला व्यक्ति जब भी आपसे मिलेगा, हर बार अच्छा ही लगेगा। उसकी बुराई कभी नजर नहीं आएगी। बुरा लगने वाला कभी अच्छा नहीं लगेगा। उसके गुण भी दिखाई नहीं देंगे। आपका निर्णय ही आवरण का कार्य करने लगता है। यह निर्णय ही सुख-दु:ख का जन्मदाता बन जाता है।
सुख-दु:ख
जब प्रिय व्यक्ति आपके पास आता है, आप सुखी महसूस करते हो। उसी को देखकर आपको लगने लगे कि यह कहां से आ गया, मेरा काम रुक जाएगा, तो वही व्यक्ति दु:ख का कारण बन जाएगा। सच तो यह है कि सुख-दु:ख का कारण बाहर से नहीं आता। हमारा नजरिया ही इसका एक मात्र कारण है। आप घर की छत पर खड़े होकर नीचे शहर को, आने-जाने वालों को, गतिविधियों को देखें। आप किसी से परिचित नहीं हैं। लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। कोई अच्छा-बुरा नहीं लग रहा, छोटा-बड़ा नहीं लग रहा। क्यों?
आपके सामने ८-१० स्त्री-पुरुष खड़े हैं। आप किसी का नाम नहीं जानते। तब भी कोई अच्छा-बुरा नहीं लगेगा। नाम जानने के साथ ही यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। कुछ नाम ही आपको अच्छे-बुरे लगने लग जाएंगे। सबके चेहरों को भी ढंक दीजिए। अच्छे-बुरे के भेद ही समाप्त हो गए। केवल स्त्री-पुरुष रह गए। किसी दुर्घटना में जब सब मृत स्त्री-पुरुषों को सफेद वस्त्रों में ढंका देखते हैं, तब स्त्री-पुरुष का भेद भी समाप्त हो जाता है। भेद-जन्य विकार भी लुप्त हो जाते हैं। हमारी स्थूल सृष्टि में नाम-रूप ही भेद का कार्य करते हैं। माया ही नाम-रूप की जनक है।
माया की समझ
भेद को समझने के लिए उस बिन्दु तक जाना पड़ेगा, जहां माया से अलग होकर माया को देखा-समझा जा सके। हमें स्वयं का धरातल बदलना होगा। स्थूल शरीर को छोड़, कारण शरीर की गतिविधियों का आकलन करना पड़ेगा। यह प्राण रूप होता है। सृष्टि का कारक है। कार्य ही सृष्टि है। सृष्टि को यथार्थ भाव में देखने के लिए सृष्टि के बाहर से देखना होगा। एक धरातल पर सभी एक जैसे दिखाई पड़ते हैं। सबसे पहले शवासन/कायोत्सर्ग का अभ्यास करके स्वयं को शरीर से अलग महसूस करना अनिवार्य है। विचारों की शृंखला से ध्यान हटाकर भावनाओं के धरातल पर चिन्तन करना है।
बुद्धिजीवियों के लिए यह सबसे कठिन कार्य होता है। भावना के धरातल पर जीवन का लक्ष्य, स्वयं के संस्कार, नीयत आदि मूलभूत विषयों से व्यक्ति का साक्षात् होता है। व्यक्ति अपनी भेद-दृष्टि को भी समझने लगता है। स्थूल धरातल की गतिविधियों को द्रष्टा भाव से देखने लग जाता है। बाहरी आवरणों की भूमिका, स्वयं के चेहरे दिखाई देने लगते हैं। क्यों हर आदमी उसे अलग-अलग समझता है। सबको एक जैसा क्यों नहीं दिखाई देता? यही दृष्टि सारे भेदों का भेदन कर देती है। व्यक्ति द्वैत से अद्वैत में प्रवेश कर जाता है।
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