संकल्प और धर्म एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। उदाहरण के लिए अगर हमने लेखन धर्म चुना है तो उसके लिए एक संकल्प हमारी कलम से, हर अक्षर से टपकता हुआ दिखना चाहिए। साहित्य क्या है? साहित्य एक तरह का संवाद है, सम्प्रेषण है, भावनाओं की अभिव्यक्ति है। मुझे जो कहना है, किसी को पढ़ाने के लिए स्पष्ट तो करना ही पड़ेगा। इसके बिना लिख नहीं सकते। इसके लिए जो जरूरी चीज है वह है सम्प्रेषण की कला। दूसरी है, भाषा। शब्द वाक् सरस्वती का क्षेत्र है। इन दो चीजों को अगर हम गहराई से लें, उनके स्वरूप को हम साध सकें तो शायद लेखन के क्षेत्र में कुछ सार्थक कार्य कर जाएंगे। अभिव्यक्ति शरीर और बुद्धि की नहीं होती, केवल मन की ही और मन से ही होती है। शरीर और बुद्धि उस अभिव्यक्ति के साधन होते हैं।
मन की भूमिका
मन में दो चीजें होती हैं। एक, इच्छा जो केवल मन में ही उठती है। दूसरी, सुख-दुख की अनुभूति मन में ही होती है। अच्छा-बुरा कुछ लगता है तो मन में ही लगता है। जिन्दगी का धरातल मन है। इन्द्रियों का राजा है मन। सारी इन्द्रियों से जितने विषय प्राप्त होते हैं वे मन को ही होते हैं। इसलिए हम मन को चंचल कहते हैं। क्योंकि जब वह एक विषय को छूता है तब उसमें चार और नए विषय खड़े हो जाते हैं। अत: जरूरी है कि इस मन को समझकर उसकी अभिव्यक्ति हम कर सकें। यह कोई छोटा काम नहीं है। मन का स्वामी चन्द्रमा है। जिसको हमें साथ साथ समझने की जरूरत है। आपका मन अनियंत्रित है और शरीर नियंत्रित है चन्द्रमा की अट्ठाईस दिन की साइकिल से। सूर्य की साइकिल उलटी चलती है।
बुद्धि में गर्मी होती है तो बुद्धिमान लोग भी गर्म ही मिलेंगे। पुरुष भाव में उष्णता है, आक्रामकता है। स्त्रैण भाव में मधुरता, वात्सल्य, स्नेह और करुणा है क्योंकि यह चन्द्रमा का भाव है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि हम सब अद्र्धनारीश्वर हैं। आधा पुरुष भाग स्त्री में और आधा नारी भाग पुरुष में है। यदि ये भाव हमें स्पष्ट समझ में आ जाएं तो समाज में कॉन्फ्लिक्ट ही नहीं हो। प्रश्न यह है कि हमने अपने भीतर पौरुष को बढ़ाने का प्रयास किया या स्त्रैण को बढ़ाने का। क्या हम उस भूमिका को समझने की स्थिति में हैं? आज जिंदगी को देखें तो लगेगा कि हम स्वभाव से अभाव ग्रस्त हो गए हैं। मेरे पास ये है, ये नहीं है। एक चीज आ गई तो दूसरी नहीं है, दूसरी आ गई तो..। जो नहीं है उसके पीछे हम भागें और जो है उसका सुख कभी भोगा ही नहीं। ये स्थिति एक अभावग्रस्त व्यक्ति की होती है। ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है लेकिन जो है उस पर हमारी आंख नहीं। जो नहीं है हम उसके पीछे दौड़ते हैं। हम अगर इस स्वभाव से मुक्त हो गए तो जीवन की आधी से ज्यादा समस्याएं गायब हो जाएंगी। क्योंकि वे सब अनावश्यक हैं।
जीवन की सार्थकता
एक किसान के दिमाग में प्रश्न ही नहीं उठते क्योंकि उसकी जिन्दगी में विषय ही नहीं हैं। वह खेत पर जाता है। शाम को घर आकर रोटी खाता है। और रात को चैन से सो जाता है। पर हम जैसे-जैसे शिक्षित होते चले गए, विकसित और समृद्ध होते चले गए हमारे सामने विषयों की एक लाइन लग गई। दिमाग को कभी रेस्ट ही नहीं मिलता। टीवी-इंटरनेट से तो ये चीजें लाखों-करोड़ों में चली गईं। हम विषयों के जाल में इतने फंस गए कि अपने आप से ही दूर हो गए। अपनी चिन्ता करने, अपने बारे में सोचने का हमारे पास वक्त नहीं होता। उसके बिना हम जिन्दगी को लक्षित नहीं कर सकते हैं। जब तक हमारे सामने मंजिल नहीं होगी हमारी यात्रा पूरी नहीं होगी।
हम 100 साल पूरे कर लेंगे तो भी वहीं खड़े रहेंगे, जहां पैदा हुए। तब प्रश्न है कि हमारी जिन्दगी की सार्थकता कहां खो गई। इस प्रश्न को हम शिक्षा के दायरे में देखें कि जब हमारी सार्थकता इतने समय बाद भी कम हो रही है तो हमारे बच्चों की और उनके बच्चों की सार्थकता का क्या होगा। वो मार्ग भी शायद हमारे आकलन में नहीं आता। अब हम बच्चे के साथ भी नियमित रूप से नहीं बैठते, जीवन की बात भी उनसे नहीं करते, स्कूल में भी नहीं की जाती संस्कार की बात। तो फिर उनको संस्कार कौन देगा।