इष्ट-सिद्धि
जप में शब्द होता है। बीज मंत्र होता है। शब्द में अक्षर होता है। अक्षर में ध्वनि होती है। ध्वनि में नाद होता है। वैखरी अथवा वाचिक स्थिति में वायु का प्रभाव सर्वाधिक होता है। कण्ठ अथवा विशुद्धि की भूमिका ही मूल में दिखाई पड़ती है। जैसे-जैसे वाचिक से उपांशु और मानस जप की ओर गति होती है, वायु का प्रभाव कम होता जाता है।
जप की गति के साथ एकाग्रता बढ़ती जाती है। जप हृदय की ओर उतरता जाता है। श्वास-प्रश्वास भी धीमा होने लगता है। एक स्थिति ऐसी बनने लगती है जब श्वास-प्रश्वास अत्यन्त मंद पड़ जाता है। ध्वनि समाप्त सी हो जाती है। इड़ा-पिंगला का मार्ग रुककर श्वास सुषुम्ना में प्रवेश कर लेता है। मध्यमा में वायु भी भीतर कार्य करती है। मंत्र भीतर उच्चारित होता रहता है। मानस के सूक्ष्म धरातल पर उच्चारण की गति स्वयं स्फूर्त दिखाई पड़ती है। बिना प्रयास के भी जप का स्पंदन जान पड़ता है। जो शब्द और अर्थ वैखरी में अलग-अलग दिखाई पड़ते थे, वे एक होने लगते हैं। यह पश्यंती का क्षेत्र है। यहां अग्नि है, प्रकाश का क्षेत्र फूटने लगता है। साधारण व्यक्ति अभ्यास और एकाग्रता से इस स्थिति तक पहुंच सकता है।
जप को इष्ट सिद्धि का माध्यम कहा गया है। जप से शब्द वाक् को अर्थ वाक् में बदलने का ही तो प्रयोग किया जाता है। सरस्वती से ही लक्ष्मी की प्राप्ति, यह ऊर्जा का ही स्वरूप परिवर्तन है। एनर्जी और मैटर के अलावा विश्व में कुछ है ही नहीं। ये दोनों एक-दूसरे में रूपांतरित हो सकते हैं- यह तो आज का विज्ञान भी मानता है।
सांसारिक जीव की दृष्टि भी छोटी होती है। वह सामने की स्थिति को ही देख पाता है और उसी के निवारण में लगा रहता है। मनीषी इससे आगे बढऩा चाहता है। उसके पास एक ही कामना होती है- ब्रह्मï से एकाकार हो जाना। वह जप से प्राप्त सिद्धियों में अटकता नहीं है। अटकना यानी फेल हो जाना। आप जिस कक्षा में फेल होते हों, वहीं अटके रहते हो। जिस सिद्धि को लेकर चमत्कार दिखाने लग गए, वहीं अटके रह जाओगे। अत: इन सिद्धियों को भी आगे जाने का माध्यम बनना पड़ता है।
जप का लक्ष्य
उपासना में भी जप का, माला का सबसे अधिक महत्व है। विश्व के अधिकांश धर्मों में जप का महत्व है। जप किसी न किसी मंत्र का होता है। मंत्रों का स्वरूप भी अधिकांशत: अनिर्वचनीय ही होता है।
जप का अभ्यास हर सर्व साधारण व्यक्ति कर सकता है। गुरु-दीक्षा का अर्थ मंत्र में आस्था पैदा करना ही होता है। इससे जप में निरन्तरता बनी रहती है। गलती होने पर अनिष्ट का भय भी रहता है। जप का लक्ष्य इतना स्पष्ट है कि चिन्तन ही नहीं करना पड़ता। शास्त्र नहीं पढऩे पड़ते और व्यक्ति शब्द और ध्वनि के सहारे अनिर्वचनीय तक की यात्रा कर लेता है। बुद्धिमान के मन में अनेक प्रश्न उठेंगे और एक भ्रान्ति की स्थिति भी बनी रहेगी। आस्था में प्रश्न उठते ही नहीं। व्यक्ति वैखरी से जप शुरू करता है।
यहां से आगे अनिर्वचनीय की यात्रा शुरू होती है। यह सारा वाक् का क्षेत्र है। इसका निष्कर्ष क्या यह नहीं कि लक्ष्मी की तरह सरस्वती भी माया का ही रूप है। लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सरस्वती रूप मंत्रों का ही प्रयोग करते हैं। लक्ष्मी पूर्ण रूप से जड़ तत्त्व है। आवरण मात्र है। सरस्वती का वाक् क्षेत्र भी इसी प्रकार जड़ है। भाषा रूप में बन्द व्यक्ति की कल्पनाएं हैं। सत्य नहीं है। सत्य सदा लक्ष्मी और सरस्वती के आगे है।
इसी प्रकार प्राणायाम के प्रयोग भी विकर्षण के पार ले जाने के लिए ही हैं। श्वास-प्रश्वास में ह-अ की ध्वनियां जुड़ी रहती हैं। अधिक शक्ति लगाने पर ये हँु तथा उँ हो जाते हैं। सम्पूर्ण सृष्टि इन चार वर्णों पर टिकी है। भाषा के बिना किसी भी वस्तु को आत्मा में प्रत्यक्षवत् रखना संभव नहीं है। आत्मा में वस्तु की स्मृति कैसे रह पाएगी! नवजात शिशु अथवा अन्य प्राणियों में स्मृति का अभाव रहता है। भाषा के माध्यम से ही मनुष्य आत्मा को इन्द्रिय ग्राह्य विषयों से जोड़ पाया। भाषा के कारण विषय स्मृति बन जाते हैं। प्रत्येक वस्तु का एक संज्ञा-शब्द होता है। संज्ञा तो वास्तव में एक ध्वनि है। हम उसे वस्तु मान लेते हैं। ‘आम’ बोलने पर ‘आम’ की ध्वनि सुनाई नहीं देती। आम दिखाई देने लगता है। हम इसी काल्पनिक ज्ञान से घिरे हैं।