मन की अवस्थाएं
भावना और वासना, ये मन की दो महत्त्वपूर्ण अवस्थाएं हैं। ज्ञान के द्वारा मन में जमे हुए संस्कार को भावना कहते हैं तथा कर्म के द्वारा मन में जमे हुए संस्कार को वासना कहते हैं। वासना को रोकने का विधान है जबकि भावना को बढ़ाने का विधान है। बच्चा परिवार में ५-६ साल की उम्र से ही सीखना शुरू कर देता है। अनुभव तो उसे पहले ही होने लग जाते हैं। वह उनको अलग ढंग से अभिव्यक्त करता है। उसका आस-पास का वातावरण सीमित ही होता है और विषय भी। यह उसके निजी विकास का काल है।
जब बच्चा कुछ समझने लायक होता है तो दादा-दादी, नाना-नानी उसे कहानियां सुनाना शुरू कर देते हैं। बच्चा बड़े चाव से सुनता है। इन कहानियों का आधार लालित्य और माधुर्य होता है। जिस भावनात्मक वातावरण और स्नेह के साथ ये कहानियां कही जाती हैं, यही इनका महत्त्वपूर्ण पहलू है।
किन्तु, आज इसको ही सबसे कम महत्त्व दिया जाता है जबकि बच्चों में भावनात्मक विकास का आधार इसी उपक्रम से तैयार किया जा सकता है और वह भी इसी कच्ची उम्र में। इसी आधार पर बालक आगे मिलने वाले ज्ञान को ग्रहण करता है और अपने संस्कार अर्जित करता है। जिस बच्चे के पास यह भावनात्मक आधार नहीं है, वह जीवन के संघर्ष नहीं झेल सकता। पढ़ाई में अच्छा हो सकता है, बड़ा व्यवसायी या अधिकारी भी बन सकता है, किन्तु भावनात्मक संस्कार का धरातल उसका निर्बल ही रहेगा। पूरा पाश्चात्य समाज इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
व्यक्तित्व का निखार
आज शिक्षा ने युवकों को नौकरी में धकेलकर संयुक्त परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया है। बच्चे से उसके दादा-दादी और नाना-नानी छीन लिए। अब इतना समय और किसी के पास नहीं है। स्कूल में इस प्रकार के विषयों का स्थान ही नहीं रहा। वहां तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही आकलन के आधार रह गए। घर पर ‘होम वर्क’ के आगे मानो शिक्षा ही समाप्त हो गई। बच्चों को छोटे से घर में खेलने के लिए न तो स्थान उपलब्ध है, न ही दूसरे बच्चे। ले-देकर आज टेलीविजन का प्रवेश एक अध्यापक की तरह हो गया है। इसी के आधार पर आप परिवार को पहला स्कूल कह सकते हैं। यही तय करता है कि बच्चा क्या सीखेगा?
बड़ा घाटा तो बच्चे का आधारहीन होना है। भावनात्मक दृष्टि के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण इसलिए नहीं होता कि जहां उसकी दृष्टि जानी चाहिए वहां जाती ही नहीं, क्योंकि भावनात्मक संस्कार जम ही नहीं पाए हैं और न सिखाए गए हैं। अच्छी नौकरी अथवा कमाई का अर्थ अच्छा व्यक्तित्व कभी नहीं हो सकता।
इसका एक अन्य प्रभाव भी पड़ता है। भावनाएं व्यक्ति को जीवन-संचालन की दृष्टि देती हैं। उसके पिछले जन्म के संस्कारों के कारण भी भावनाओं के कुछ अंश उस व्यक्ति में आते हैं। भावनात्मक विकास होने पर वह अपने अच्छे-बुरे संस्कारों का आकलन करके जीवन की दिशा तय करता है। बुरे गुणों का बहिष्कार करता है। अपने व्यक्तित्व में नया निखार पैदा करता है। समाज और राष्ट्र के लिए एक स्तम्भ के रूप में तैयार हो जाता है।
इसके विपरीत, भावनात्मक विकास के बिना उसके विचारों में विशेष परिवर्तन नहीं आ पाता। अच्छे-बुरे सभी तरह के विचारों का पोषण उसमें समान रूप से होता है। बुरे विचार उसके मन को प्रभावित करते हैं और अन्तत: शरीर में रोग रूप में प्रस्फुटित होते हैं।
शरीर का ग्रंथि-स्राव केवल वासनाओं से ही चलता है। बुरे संस्कार धीरे-धीरे ऐसे रसायन पैदा करते हैं कि कालान्तर में बड़ा रोग जड़ें जमा लेता है। जिस प्रकार क्रोध, चिन्ता आदि से रोग होते हैं, उसी प्रकार भावनात्मक निर्बलता और वासनात्मक प्रबलता भी बड़े रोगों का निमित्त बनती हैं।