रस, माधुर्य, स्नेह, लालित्य भाव सभी कल्पना से जुड़े हैं। व्यवहार की भाषा में आप इसे सपने देखना भी कह सकते हैं। जब व्यक्ति सपने देखेगा तभी तो उनको पूरा कर सकेगा। जो सपना ही नहीं देख पाए उसका विकास असम्भव है। केवल दिवास्वप्न ही व्यर्थ जाते हैं। स्वप्न निजी धरातल के भी हो सकते हैं, कार्यक्षेत्र के भी और जीवन के किसी भी क्षेत्र के, जिससे आप जुडऩा चाहते हैं।
कल्पना का कार्य
आम धारणा यह है कि स्मृति बन्धन है, व्यक्ति को अपने अतीत से बांधकर रखती है। स्मृति के कारण व्यक्ति मुक्त नहीं रह पाता। स्मृति में अनेक बिम्ब और प्रतिबिम्ब होते हैं, प्रतिध्वनियां होती हैं, प्रतिक्रियाएं होती हैं, जो व्यक्ति के जीवन को सीमित करती रहती हैं, उसको एक निश्चित दिशा में ही बांधे रखती हैं। स्मृति के कारण कई बार व्यक्ति वर्तमान में भी नहीं जी पाता। अपनी स्मृतियों में ही खोया रहता है। पर, उपलब्धि कुछ नहीं होती। स्मृति में खो जाना कल्पना नहीं है, सपना भी नहीं है।
स्मृति को तोडक़र बाहर निकालना कल्पना का कार्य है। जीवन को दिशा देना भी कल्पना का कार्य है। व्यक्ति के मानस को झकझोरने का कार्य कल्पना ही कर सकती है। जीवन का बोध करा सकती है। आज की आधुनिक प्रबन्ध व्यवस्था में योजन शब्द का अर्थ भी कल्पना ही है। परिणाम तो किसी के हाथ में नहीं है। केवल प्रयास करने का कार्य हमारा है। लक्ष्य बनाकर प्रयास करने की दिशा तय करना हमारी कल्पना शक्ति का ही कार्य है। प्रबन्धकीय योजन में अनेक विशेषज्ञों की सृजनशीलता और कल्पना उपयोग में आती है।
योजना का प्रारूप सकारात्मक होता है। भावी दृष्टिकोण उसमें समाहित रहता है। कल्पना हमारा भविष्य तय करती है।एक व्यक्ति नौकरी करता है। घर से चिट्ठी आती है कि अमुक तारीख को तुम्हारी शादी तय कर दी गई है। वह दस-पंद्रह दिन का अवकाश लेकर घर जाता है। शादी करके, पत्नी को लेकर नौकरी पर चला जाता है। इस दम्पती के भावी जीवन की कल्पना आसानी से की जा सकती है। दोनों को ही सपने देखने का समय नहीं मिला।
सगाई और शादी के बीच का अन्तराल जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग इसलिए है कि व्यक्ति अपनी जिन्दगी के बारे में सपने देख सके। उसे इतना तो मालूम होना ही है कि भावी जीवन-साथी की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति क्या है, आर्थिक और शैक्षणिक स्वरूप क्या है।भावी रिश्तों की मिठास का यह समय कन्याओं के लिए शायद अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उन्हें स्नेह और माधुर्य बटोरना है, आगे बांटना है। इस काल की सारी कल्पना रसमय होती है।
जीवन में रस का नया संचार कर देती है। यह रस पूरी उम्र बना रहता है। पूरी उम्र जीवन साथी पर यह रस उड़ेला जाता रहेगा।
कल्पना की मिठास
मातृत्व भी इसी प्रकार का सपने देखने का काल है, जहां रस की प्रधानता होती है। माधुर्य और स्नेह होता है। होठ गुनगुनाते हैं। यही रस बालक को उम्र भर मिलता है। इस रस को बटोरने के लिए समय देना पड़ेगा। इसके बिना सब कुछ नीरस अथवा पुस्तक पढक़र किया हुआ-सा लगेगा। भावनाओं की गहनता कम होगी, बुद्धि का धरातल व्यापक होगा। जीवन के सभी रिश्ते भावप्रधान होते हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में लक्ष्य बनाने का कार्य, कार्य के साथ पूर्ण मनोयोग और स्मृति से मुक्त रहने का मार्ग कल्पना ही प्रशस्त करती है। भाव यदि नकारात्मक हैं तो मन में अनेक प्रकार के संशय, आवेग और तनाव को भी कल्पना जन्म देती है। कल्पना के बहाव में इतनी शक्ति होती है कि व्यक्ति अपना अतीत और वर्तमान दोनों ही भूल बैठता है। वह ऊर्जावान की अपेक्षा ऊर्जाहीन बन जाता है।
स्मृति हो अथवा कल्पना, दोनों ही साधन की तरह काम आनी चाहिएं। ये साध्य नहीं हो सकतीं। अपेक्षा इस बात की है कि कार्य की समाप्ति के साथ ही स्मृति और कल्पना भी सुप्त रह सकें, दिनचर्या समाप्ति के बाद हम स्वयं में रह सकें तथा कल की चिन्ता न रहे।
वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही धरातलों पर हम अपने ज्ञान और अनुभवों को साथ रखकर अपने भावी जीवन की कल्पना करें तथा मन को पटु बनाने और एक निश्चित लक्ष्य बनाकर कार्य करना शुरू करें तो जीवन को मोड़ सकते हैं। स्वाध्याय में भी तो हम यही करते हैं—क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए और क्या बनना है। एक निश्चित लक्ष्य को लेकर नियमित योजना करना, आगे से आगे नई मंजिल तय करना तथा व्यापकता का भाव बनाए रखना व्यक्ति की कल्पना को ही स्वाध्याय बना देता है। कल्पना का सबसे उज्ज्वल पक्ष यह है कि यह सदा व्यक्ति को आशावान बनाती है।
हर छात्र अच्छे नम्बरों से पास होने के सपने देखता है। आगे से आगे अपने भविष्य का चित्र तैयार करता चला जाता है। इसमें मिठास होती है तो बड़े होने या बनने का सुख भी होता है। सकारात्मक कल्पना में कड़वापन होता ही नहीं है। यथार्थ के सहारे, अपनी क्षमता के अनुकूल वह संघर्ष को तैयार होता है। जो बड़े सपने देखता है वह छोटा नहीं रह सकता।