धर्म और अध्यात्म

स्पंदन – कान्ति

प्रत्येक व्यक्ति का एक आभा-मण्डल होता है। जो उस व्यक्ति के मन की सूचना देता रहता है। दुष्ट चरित्र का आभा-मण्डल किसी आत्मीयता प्रधान जीव को आकर्षित नहीं करता।

Mar 16, 2019 / 03:22 pm

Gulab Kothari

karma

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति के पास बैठकर वहां से उठने की इच्छा नहीं होती तो किसी के पास बैठने तक की इच्छा नहीं होती। इसका उत्तर है-मन की भूमिका। जिसके मन में समष्टिभाव है, वह उदारमना होता है। वह दया, करुणा और स्नेह का प्रतीक होता है। वह किसी के अहित की बात नहीं सोचता और न ही स्वयं के स्वार्थ को महत्त्व देता है। उसके चेहरे पर एक विशेष ओज दिखाई पड़ता है। यही ओज अथवा कान्ति उसके प्रति विशेष आकर्षण का केन्द्र बनता है। जैसे-जैसे व्यक्ति का शुद्ध ज्ञान बढ़ता है, विश्वकल्याण का भाव बढ़ता जाता है। उसकी कान्ति का क्षेत्र भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है। जब भी कोई व्यक्ति इस प्रभाव क्षेत्र में प्रवेश करता है तो वह सहज ही आकर्षित हो जाता है।

आभा-मण्डल
प्रत्येक व्यक्ति का एक आभा-मण्डल होता है। जो उस व्यक्ति के मन की सूचना देता रहता है। दुष्ट चरित्र का आभा-मण्डल किसी आत्मीयता प्रधान जीव को आकर्षित नहीं करता। यही आभा-मण्डल व्यक्ति के मन की खुराक बनता है, मन का पोषण करता है, मन को तुष्ट एवं पुष्ट करता है। आज वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन शुरू कर दिया है। अनेक संस्थाएं इस पर कार्य कर रही हैं। ऐसे उपकरण तैयार हो गए हैं जिनसे आभा-मण्डल के चित्र, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में लिए जा सकते हैं। व्यक्ति के मनोभावों का अध्ययन किया जा रहा है। हमारे यहां सब कुछ ग्रन्थों में लिखा है, किन्तु उनको कोई समझाने वाला नहीं है। जबकि विदेशों में उनके उत्तर उपलब्ध हो रहे हैं। हमारा जीवन ज्ञान और कर्म का सन्तुलन है। कोरा ज्ञान बिना कर्म के विष का कार्य करता है। वह किसी परिणाम या उपलब्धि में परिणत नहीं हो सकता। बिना ज्ञान के किए गए कर्म भी व्यक्ति को वासना क्षेत्र में बांधते चले जाते हैं।

व्यक्ति के पाश बढ़ते जाते हैं, और उसका पशुत्व बलवान होता रहता है जबकि ज्ञानयुक्त कर्म व्यक्ति को भावना-क्षेत्र में बनाकर रखते हैं। वासना और भावना का समीकरण ही तो जीवन है। जिस प्रकार शुद्ध कर्म क्षेत्र व्यक्ति को ओजस्वी बनाता है, उसी प्रकार भावना की शुद्धता, व्यापकता इसे कान्ति में परिणत कर देती है। ओजस पराक्रम का क्षेत्र है, भावना की प्रबलता और शुद्धता (निर्मलता) वीतरागता की ओर ले जाती है।

यादृशं भुज्यते अन्नं, पच्यते जठराग्निना, प्रदीपने तपोभुक्तं, नीहारोमि च तादृशं:।

– व्यक्ति जैसा खाता है, वैसा निकालता है। अंधकार का भक्षण करने वाला दीपक धुआं उगलता है। इसके विपरीत जिसने स्नेह को जीत लिया, वृत्तियों को क्षीण कर दिया, वह सदा उदित रहता है।

भक्तामर का एक श्लोक है—

निर्धूमवर्तिरप्रवर्जित-तैलपूर:
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोऽसि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाश:॥

– हे प्रभु! तुम जगत् को प्रकाशित करने वाले अलौकिक दीप हो। दीप तेल और बाती से जलता है और उससे धुआं निकलता है। आपके अलौकिक दीपक को न तो बाती की जरूरत है, न ही तेल की। वह निर्धूम है। दीपक सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है जबकि तुम इस परिपूर्ण जगत् को प्रकाशित करते हो। दीप को हवा का एक झोंका भी बुझा देता है किन्तु आपके अलौकिक दीप को पर्वत को प्रकम्पित कर देने वाला प्रलयवान भी नहीं बुझा सकता।

आन्तरिक ज्योति
प्रकाश का ज्ञान से सीधा सम्बन्ध है। ज्ञान के विकास के लिए प्रकाश की साधना की जाती है। सूर्योपासना की परम्परा प्रकाश की साधना करने वाले की अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है।

आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने ग्रन्थ ‘भक्तामर : अन्त:स्तल का स्पर्श’ में लिखा है-‘साधना के क्षेत्र में साधक आन्तरिक ज्योति के जागरण की साधना करता है। उसके प्रस्फुटन के लिए ही वह दीपक की लौ का ध्यान करता है। मणि की प्रभा, सूर्य की रश्मि अथवा चन्द्रमा का ध्यान करता है। उसके ये सारे उपक्रम भीतर की ज्योति को जगाने के लिए होते हैं।’

आकर्षण आकृति और रंग-रूप में नहीं होता, मन की पवित्रता में होता है। इसी से आभा-मण्डल की कान्ति बढ़ती है। इसी से मन में शान्त रस की स्थापना होती है।

यही एक रस स्थाई होता है, शेष रस क्षणिक कहे जा सकते हैं, अल्पकालीन होते हैं। इसके बाद मन से आवेग, आवेश और नकारात्मक भाव लुप्त हो जाते हैं, नए विष पैदा नहीं होते। कान्ति मन्द नहीं पड़ती, उज्ज्वल बनी रहती है।

कामना और कान्ति एक ही धातु से बने हैं, अत: कान्ति का आधार भी मन की कामना ही है, ऐसा व्याकरणकार लिखते हैं। कामना, भावना, इच्छा एक ही हैं और यह मन का बीज है। मन में ही इच्छा पैदा होती है, अपने आप पैदा होती है। आप इच्छा को पैदा नहीं कर सकते, केवल पूरी कर सकते हैं अथवा दबा सकते हैं। भावना और कर्म व्यक्ति से जुड़ते हैं।

कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और बुद्धियोग भावना और कर्म के विभिन्न समीकरणों को समझने में व्यक्ति की सहायता करते हैं।

कामना ही तो अन्तत: कर्म में परिवर्तित होती है। कर्म के साथ पैदा होते राग-द्वेष और कषाय मन में अंधकार और अहंकार पैदा करते हैं। शरीर में विष पैदा करते हैं। ये तमोगुणी होते हैं।

इन पर विजय पाने के लिए धृति का विकास किया जाता है। धैर्य का विकास किया जाता है। मन की स्थिरता और शक्ति देने वाली बुद्धि को ही धृति कहते हैं। धृति कान्ति का ईंधन बनती है।

धृति के साथ विवेक बढ़ता है, ज्ञान बढ़ता है, प्रज्ञा जाग्रत होती है, कान्ति बढ़ती है। बिना धृति के व्यक्ति बड़ा नहीं बन सकता। सार्थक जीवन यात्रा नहीं कर सकता। सुख और शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। लोकहित तो उसका विषय बन ही नहीं सकता।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का समष्टि भाव ही ज्ञान का प्रकाश होता है। यही कान्ति है। इस कान्ति से व्यक्तित्व प्रकाशमान भी रहता है और दूसरों को भी प्रकाशित करने की क्षमता प्राप्त करता है। यह कान्ति ही ज्ञान की उपलब्धि है, कर्म की परिपक्वता है और जीवन का अमृत रस है।

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