गीता में आत्मा के दो धातु कहे गए हैं-ब्रह्म तथा कर्म। इसीलिए हम आत्मा के लिए ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहते हैं। कृष्ण गीता में स्वयं को ‘अव्यय’ कहकर सम्बोधित करते हैं। आत्मा नश्वर शरीर, मन और बुद्धि से जुड़ा रहता है। अत: शरीर भी शाश्वत ही जान पड़ता है। अव्यय की पुरुष या ब्रह्म संज्ञा है। अक्षर और क्षर इसकी परा और अपरा प्रकृति है।
अव्यय पुरुष
अव्यय पुरुष की पांच कलाएं आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण व वाक् हैं। इनमें आनन्द कला ब्रह्मरूप है। ब्रह्म की सत्ता को आत्मसात् करने वाला ज्ञान विज्ञान है। ‘प्राण’ कर्म या क्रिया रूप है। आनन्द से युक्त प्राण व विज्ञान, अव्यय की तीसरी कला, मन का निर्माण करते हैं। यह अव्यय मन कहा जाता है। यही मन सत्त्व-रज-तम गुणों वाले मन को अपने अंश से युक्त करके संसार चक्र को चलाता है।
अव्यय के ही दो रूप हैं-ईश्वर व जीव। जीव त्रिगुणात्मक होता है, सत, रज, तम से आवरित रहता है तथा ईश्वर गुणातीत होता है। जीव को विद्या (ज्ञान, धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य) का सहारा लेकर ईश्वर के पास पहुंचाना ही गीता का परम लक्ष्य है।
योगमाया अव्यय पुरुष के स्वरूप का आवरण करती है। योगमाया के पाश में बंधा हुआ अव्यय ही जीवाव्यय कहलाता है। इसी योगमाया से बद्ध मानव रजोगुण व तमोगुण के चक्र में कर्मवादी बन जाता है। सत्त्व गुण का समावेश व्यक्ति को ज्ञानमार्ग की ओर अग्रसर करता है।
निष्काम कर्मयोग
ब्रह्म व कर्म रूपी इन्हीं दो मानवीय अवस्थाओं में समानता बनाए रखने के लिए गीता प्रत्येक कर्म में बुद्धियोग के समन्वय की बात कहती है कि- ‘आरंभ: कर्मणां किन्त्व: संन्यास: कामसंगयो:।
स बुद्धियोगो गीतायां निष्ठाद्वय समन्वित:॥’
भावार्थ यह है कि कर्म कभी नहीं छोडऩा चाहिए। किन्तु कामना और आसक्ति का परित्याग आवश्यक है। यही बुद्धियोग गीता का मूल लक्ष्य है। यही है गीता का साम्यवाद। अपने वर्णानुसार अधिकृत कर्मों का, अधिकार सहित और स्वेच्छानुसार आचरण करना कर्मयोग कहलाता है। प्रकृति का यह नियम है कि बिना कामना के किसी भी कर्म की उत्पत्ति संभव नहीं है। कामना-इच्छा-क्षुधा ही माया है। दुर्गा सप्तशती में या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारुपेण संस्थिता….आदि मंत्रों के माध्यम से माया की सम्पूर्ण क्रियाओं का विवेचन किया गया है। नासदीय सूक्त में भी कामना को ही मन का प्रथम बीज कहा है- कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्। संकल्प-विकल्प युक्त मन ही कामना करता है। वर्तमान भोगवादी युग में व्यक्ति की फल की ओर विशेष आसक्ति देखी जा सकती है। किन्तु मोक्षार्थी मानव को गीता के निष्काम कर्मयोग को आत्मसात् करना आवश्यक है।
कृष्ण कहते हैं कि-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्म्मफलहेतुर्भू:, मा ते संगा: तु अकर्मणि ॥’ गीता मुख्य प्रश्न है ‘अधिकार’ का। इस प्रश्न के दो मुख्य स्तंभ हैं-कर्म और कर्मफल। मानव का अधिकार कर्म पर है अथवा फल पर? क्या मानव फल उत्पन्न करता है? नहीं! मानव स्वयं फल को उत्पन्न नहीं करता, बल्कि मानव का कर्म ही फल का उत्पादक है। व्यक्ति फल की कामना मात्र कर सकता है।
फल को प्राप्त करने के लिए तो बस कर्म को सविधि पूर्णत: सम्पन्न करना आवश्यक है। फल के भोगों में अवश्य ही उसका अधिकार है। जो जिसका उत्पादक है वही उसका अधिकारी भी है। कर्म कब पूरा होगा, अभी होगा, पांच साल बाद होगा, दो जन्म बाद होगा, हमारे अधिकार में नहीं है। कर्म की पूर्णता ही फल है।
अधिकार सिद्ध कर्म
गीता फल की उपेक्षा करके निरर्थक कर्म करने को प्रेरित भी नहीं करती। यह अभ्युदय और नि:श्रेयस् दोनों फलों को उद्देश्य बनाती है। यहां कृष्ण ने अर्जुन का ध्यान अधिकार सिद्ध कर्तव्य कर्म (क्षत्रियोचित) की ओर आकर्षित किया है।
निश्चित फल को लक्ष्य में रखकर व्यक्ति अपनी प्रकृति, योग्यता, क्षमता, पात्रता, वर्णता आदि के अनुरूप संकल्प करके अधिकार सिद्ध कर्म के लिए प्रवृत्त हो जाता है। फल के स्वरूप के अनुपात में कर्म की अवधि सुनिश्चित है।
जैसे गुठली लगाने से आम आने तक की अवधि निश्चित है। उस अवधि पर्यन्त निष्ठापूर्वक कर्म करने से ही संकल्पित फल मूर्तरूप लेता है। यानी कि कर्म के शुरू में संकल्पित फल, मध्य में कर्म, कर्म-समाप्ति पर सिद्धफल। इनमें मध्यकाल ही कर्मकाल है।
फल तो कृत कर्म पर आधारित है। कर्म पूर्ण है तो फल भी निश्चित सम्पन्न है। कर्म करने पर भी फलसिद्धि नहीं हुई तो यह भाग्य की बात नहीं है। वस्तुत: कर्म में कहीं न कहीं कमी रह गई। अत: हमें तत्काल उस दोष को खोजकर पुन: कर्म करना चाहिए। जिससे फल सिद्धि निश्चित हो सकेगी।