धर्म और अध्यात्म

स्पंदन – देखना

‘‘एक चिन्तन आता है, उसका संस्कार बन जाता है। एक प्रवृत्ति होती है और उसका संस्कार बन जाता है। एक शब्द आता है और उसका संस्कार बन जाता है। चिन्तन चला जाता है, प्रवृत्ति चली जाती है, शब्द चला जाता है, किन्तु वे अपने पीछे संस्कार छोड़ जाते हैं।’’

Jan 01, 2019 / 03:01 pm

Gulab Kothari

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आत्मा का धर्म है जानना और देखना और कुछ नहीं। बाकी जो कुछ है वह मन, बुद्धि तथा शरीर का काम है, आत्मा का नहीं। अत:, आत्मा में स्थिर होने का अर्थ है- निर्लिप्त भाव से देखना, जानना। आत्मा को केवल आत्मा से ही जाना जा सकता है, इसलिए भी देखने और जानने के लिए हमें शरीर, मन और बुद्धि के बाहर जाना ही होगा। जब तक इनका आवरण रहेगा, आत्मा ढकी ही रहेगी, अत: स्वस्थ एवं शुद्ध जीवन जीने का मार्ग है- देखो और जानो।
मैं आत्मा हूं
इसके लिए मन में सदा यह विचार रहना आवश्यक है कि मैं आत्मा हूं। आत्मा में ईश्वर है तो मैं ईश्वर हूं। ईश्वर है तो अकेला नहीं हो सकता। उसकी शक्तियां, क्षमताएं भी उसके साथ ही हैं और वे सब मुझ में हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शरीर मैं नहीं हूं। यह मन और विचार भी मैं नहीं हूं। मैं तो इनको देखता हूं- बस। ईश्वर सृष्टा है, उसने मुझे रचा है। मुझे आगे की सृष्टि रचनी है, यह मेरा मूल दायित्व है।
जो ज्ञान है, उसे आगे बढ़ाना है। कर्म करते हुए ऋण-मोचन करके ईश्वर में लीन हो जाना है। जो कुछ कर्म मैं पिछले जन्म से साथ लाया हूं, जो संस्कार लाया हूं, उनका भी विपाक होना है। जो कुछ ऋणानुबंध मेरे साथ जुड़े हैं उनको भी सहर्ष, हंसते हुए चुकाना है। जो कुछ घट रहा है उनके पीछे भी ये ही कारण हैं, अन्यथा कुछ नहीं। मैं इनको टाल नहीं सकता। जो कुछ घटित हो रहा है, बस उसे देखना है। शरीर की क्रियाएं, स्पन्दन, मन के भाव आदि सब दिखाई पड़ते रहें और हम इनके साथ लिप्त भी न हों।
हम अभ्यास करें कि हमारा शरीर कुछ समय के लिए शिथिल हो सके। हम भीतर प्रवेश कर लें। हमारी इन्द्रियां कुछ देर के लिए सुप्त हो सकें, अंतर्मुखी हो सकें?

हमारे विचार अन्दर होने वाली गतिविधियों पर कुछ देर रुकें। हमारा मन भीतर के प्रकाश को देखने का प्रयत्न करे। देखने की पहली सीढ़ी है- श्वास। इसको आते-जाते देखना है। शरीर समझ में आने लगेगा, विचार समझ में आएंगे, मन समझ में आएगा। सब एकाग्र होने लगेंगे। स्वयं का इनके साथ सम्बन्ध समझ में आएगा। अनित्य क्या है, दिखाई देगा। संयम बढ़ेगा, अनुशासन और मर्यादाएं बढ़ेंगी, शांति का मार्ग प्रशस्त होगा।
प्राण-ऊर्जा
देखने का यही क्रम यदि जारी रहा तो प्राण-ऊर्जा का क्रम दिखाई देगा, जीवन परिवर्तन का नया मार्ग समझ में आएगा। प्रतिदिन आधा घंटा या चालीस मिनट का यह अभ्यास शीघ्र ही व्यक्ति को मन की गहराइयों का परिचय दे देता है। उसको अन्तर्मुखी (गंभीर) बना देता है। शरीर की रासायनिक क्रियाएं दिखने लगती हैं। भावनाओं का प्रभाव, संकल्प का प्रभाव कैसे व्यक्तित्व पर छा जाता है, इसका अनुभव होने लगता है। कैसे मन में प्राणियों के प्रति सहृदयता, करुणा और मैत्री के भाव प्रस्फुटित हो जाते हैं, कैसे आनंद का स्रोत खुलता है, व्यक्ति स्वयं के कर्मों का किस प्रकार विश्लेषण कर लेता है, कैसे वह संस्कारों से मुक्त होने का प्रयास करता है और शेष जीवन में किस प्रकार की शांति का नया अनुभव करता है आदि का आभास उसको होता है।
एक ही बात है जो इस देखने और जानने के साथ जुड़ती है, वह यह है कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं। देखना और जानना भी कर्म है। यहां भाव-कर्म की प्रधानता होती है, शरीर गौण रहता है। भावों की प्रधानता कर्म में श्रद्धा पैदा करती है, संकल्प को दृढ़ करती है और अभ्यास की निरंतरता बनाए रखती है।
देखना और जानना
देखने का नाम ही तो दर्शन है। जानना ही ज्ञान है। आप एक चीज को कैसे देखते हैं, वही तो आपका दर्शन है। इसका आधार ज्ञान होता है। भाव भी ज्ञान के कारण ही बनते हैं। लक्ष्य की स्पष्टता भी ज्ञान से ही होती है। शर्त यह है कि ज्ञान भी तटस्थ हो और दर्शन भी। बुद्धि का तर्क काम नहीं आता। इससे तो द्वंद्व पैदा होता है। द्वंद ही तो जीवन का दूसरा नाम है। द्वंद ही तो शांति का शत्रु है।
जो कुछ घट रहा है, उसे सृष्टि का क्रम समझकर देखें। स्वयं को भी इसी का एक अंग मानें। तब आप भी निमित्त मात्र रहकर कर्म करेंगे। सुख-दु:ख का बहुत प्रभाव आप पर नहीं पड़ेगा, यह भी सृष्टि-क्रम का ही अंग है। इसका अर्थ भाग्य के भरोसे बैठ जाना भी नहीं है।
जीवन तो कर्म प्रधान ही रहेगा। इससे तो भाग्य को भी बदला जा सकता है। कर्महीनता तो मृत्यु का पर्याय है। बस, आपको केवल कर्मफल की चाह से मुक्त रहना है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है:
‘‘एक चिन्तन आता है, उसका संस्कार बन जाता है। एक प्रवृत्ति होती है और उसका संस्कार बन जाता है। एक शब्द आता है और उसका संस्कार बन जाता है। चिन्तन चला जाता है, प्रवृत्ति चली जाती है। शब्द चला जाता है, किन्तु वे अपने पीछे संस्कार छोड़ जाते हैं। जो छोड़ा जाता है, उसकी अभिवृत्तियां होती रहती हैं।’’
‘‘मार्ग चलने के लिए होता है, आसक्ति के लिए नहीं होता। जब आसक्ति आती है तब पद-चिन्ह छूटते हैं। देखने और जानने का मार्ग ऐसा है जहां न पद-चिन्ह, न अनुसरण, न कुछ शेष, न कोई स्मृति, न संस्कार।’’
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