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स्पंदन – परिष्कार

locationजयपुरPublished: Jan 15, 2019 04:16:06 pm

Submitted by:

Gulab Kothari

परिष्कार का मार्ग? आकलन और आकलन-व्यक्तित्व का। शोधन का अभ्यास और नए लक्ष्यों का चिन्तन। स्वाध्याय के बिना, चिन्तन के बिना यह कार्य सम्भव नहीं है।

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परिष्कार का अर्थ है—शोधन। किन्तु; शोधन किसका? व्यक्तित्व का। और, व्यक्तित्व का अर्थ है—शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा। परिष्कार क्यों? ताकि स्वयं के मूल को जान सकें। जीवन को लक्षित कर सकें। उपयोगी जीवन जी सकें।
परिष्कार का मार्ग? आकलन और आकलन-व्यक्तित्व का। शोधन का अभ्यास और नए लक्ष्यों का चिन्तन। स्वाध्याय के बिना, चिन्तन के बिना यह कार्य सम्भव नहीं है। स्वयं के बारे में उन वृत्तियों का चिन्तन, जिन्हें परिष्कृत करना है। उन व्यसन-वासनाओं का चिन्तन, जो निमित्त पाकर जागृत हो जाती हैं। उन भावनाओं का चिन्तन, जो हमारे दृष्टिकोण को ढके रखती हैं। उन भावों का, जो मैत्री के प्रति मन में विकर्षण पैदा करते हैं, हमारे व्यक्तित्व को नकारात्मक स्वरूप प्रदान करते हैं।
लक्ष्यों का चिन्तन
चिन्तन उन लक्ष्यों का, जो हम प्राप्त करना चाहते हैं। उस व्यक्तित्व का, जिसका हम निर्माण करना चाहते हैं। अपने अस्तित्व को हम नहीं बदल सकते, व्यक्तित्व को बदल सकते हैं। क्या यह सम्भव है कि हमारा व्यक्तित्व और अस्तित्व एक हो जाए? चिन्तन करना है हमारी बुद्धि का, हमारे विचार-तन्त्र का, जो हमें दिशा देते हैं। हमारे मन पर अंकुश का कार्य करते हैं। इसके लिए हमें सत, रज और तम के स्वरूप को समझना अनिवार्य है।
सबसे बड़ी बात है, अपने बारे में सही-सही बात को स्वीकार करना। आप सोचने बैठे हैं कि आपको कौन-सी बात परेशान करती है। यदि आपको समझ में आ जाए कि परेशानी का कारण आपका झूठा व्यवहार है, आप कोई कार्य करना चाहते हैं, किन्तु सामाजिक परिवेश में उसे सही नहीं आंका जाता, तब आप एक मुखौटा पहनकर समाज के सामने आते हैं। अपनी गलती को ढकने का प्रयास करते हैं। इससे आपकी पुरानी गलती का प्रभाव दृढ़ होता है।
जब तक आप सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे, गलती करने का भाव बना ही रहेगा। आप उन कारणों का विचार करें कि गलती क्यों करना चाहते हैं और झूठ क्यों बोलना चाहते हैं। आपको लगेगा कि उम्र भर की सारी गलतियां एक-एक करके आपके सामने से गुजरने लगी हैं। खुलती जा रही हैं। यह भी लगेगा कि एक दबी हुई गलती निमित्त पाकर दूसरी गलती के लिए प्रेरित करती है। यह प्रक्रिया आपके व्यक्तित्व की दिशा बदल देती है।
प्रायश्चित
आप आंख मूंदकर लेट जाएं तथा गलती का आकलन शुरू कर दें। शरीर को ढीला-निढाल छोड़ दें। विचारों को एक ही समस्या पर केन्द्रित कर दें। शरीर में भी विचारों के अनुरूप हरकत होती रहेगी। आप ध्यान न दें। धीरे-धीरे गलतियों की परतें उधड़ती जाएंगी। आप भाव के उस मूल तक पहुंच जाएंगे, जो आपको गलती करने के लिए प्रेरित करता है। आपको अचानक एक हल्कापन महसूस होगा। बहुत सारा बोझ उतर जाएगा, आपके मन से।
गलतियों का यह चित्रण और इनकी स्वीकारोक्ति आपकी जीवनधारा बदल देगी। आपको लगेगा कि आपकी गलतियों के मूल में क्या था। इतना समझ में आते ही भावी गलतियों का सिलसिला रुक जाएगा।

स्वीकारोक्ति और संकल्प ही तो प्रायश्चित है। इसके साथ मन के भावों में परिवर्तन आ जाता है। घटना विशेष का महत्त्व ही पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। निमित्त कारणों का रूप समझ में आता है कि व्यक्ति किस प्रकार भुलावे का जीवन जीते हुए दु:खी रहता है। मूल दर्द कहीं और ही दबा रहता है।
इसी प्रकार के नियमित चिन्तन से व्यक्ति को सहज ही विकृतियों से मुक्ति मिल सकती है। व्यसन, वासनाओं का मूल समझा जा सकता है। धीरे-धीरे समस्या का मूल व्यक्ति की समझ में आ जाता है। व्यक्ति के दबे हुए मनोभाव जाग्रत होते हैं, शक्तियों और सकारात्मक कार्यों का प्राकृत रूप में विकास फूटता है। सबको स्वयं के समान दु:खी पाकर उसका मैत्री भाव भी जाग्रत होता है। जीवन परिष्कृत भी हो जाता है और अन्य को परिष्कृत करने का भाव भी जाग्रत होता है।

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