बन्धन और विच्छेद
जैसे ही आपसी व्यवहार में बुद्धि बीच में आई और ‘अच्छे-बुरे’ की गणना शुरू हो जाती है। व्यक्ति ओझल हो जाता है। हमारे जीवन में उनकी भूमिका ही व्यवहार का आधार बनता है। आज तो व्यवहार का आधार शुद्ध स्वार्थ ही बनता जा रहा है। सम्बन्धों का आधार पारिवारिक न होकर स्वार्थपरक बनता जा रहा है। व्यक्ति के गुण-दोष तथा उसका प्राकृतिक स्वरूप महत्त्वपूर्ण नहीं रह गए।
वैसे तो प्रकृति स्वयं कर्मफल के अनुरूप ही बन्धन अथवा विच्छेद का कारण बनती है। विवाह में तो बन्धन और विच्छेद साथ-साथ भी चलते रहते हैं। गृहस्थाश्रम के उत्तरकाल में तथा वानप्रस्थ के प्रारम्भ में भी विरक्ति का एक प्राकृतिक भाव मन में उभरता है। यह शुभ संकेत है। इसमें मन तो जुड़ा रहता है, शरीर अलग कार्य करने लगते हैं। अब शारीरिक सम्बन्धों की आवश्यकता ही समाप्त हो जाती है। निर्माण काल समाप्त हो चुका होता है। धर्म का काल प्रारम्भ होता है। अर्थ और
काम के कर्म पूर्ण हो चुके होते हैं। धर्म का लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्टय का अन्तिम चरण-मोक्ष दिखाई देने लगता है।
पुरुष वर्ग के लिए यह काल विच्छेद कारक भी बन सकता है। उसे विरक्ति का स्वरूप समझ में देर से आता है। तब तक नए किसी साथी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए निकल पड़ता है। आज की जीवन शैली में तो यह दृश्य साधारण रूप से प्रस्फुटित होता जान पड़ता है। सम्बन्ध-विच्छेद की पीड़ा कानूनी लड़ाई का रूप लेकर शत्रु भाव में बदलने लग गई। इस कारण विच्छेद भी पूर्णत: नकारात्मक जीवन की नई शुरुआत हो जाता है। विच्छेद की स्वतंत्रता भी प्राप्त नहीं होती। यह परिस्थिति बच्चों के लिए तो नर्क बन जाती है। संस्कारों का अन्तिम संस्कार हो जाता है।
अहंकार का कारण
जीवन में शरीर और बुद्धि के अतिरिक्त सभी धरातल लुप्त हो जाते हैं। हर व्यक्ति का अस्तित्त्व ही खो जाता है। परिवार टूट जाता है। जीवन बिखर जाता है। सपने चूर-चूर हो जाते हैं। स्थिति भयावह तब और भी हो उठती है जब स्त्री और पुरुष दोनों अपने-अपने परिवारों को तिलांजलि देकर शरीर केन्द्रित जीवन जीने निकल पड़ते हैं। अहंकार का कारण भी शरीरबल, धनबल, पदबल अर्थात् बुद्धिबल ही रहता है। अहंकार पुरुष का शस्त्र है। निर्बल का शिकार किया करता है। पहला शिकार पत्नी बनती है। फिर वह स्त्री जो सम्पर्क में रहती है और स्वयं की परिस्थितियों से कुण्ठित होती है। कई बार कनिष्ठ स्तर पर कार्य करने वाली होती है। आज तो स्त्री भी पुरुष जैसे ही अहंकार से पीडि़त होने लगी है। स्वतंत्रता के लिए छटपटाती मिल जाती है।
वैसे स्त्री आगे होकर निमंत्रण नहीं दिया करती। अहंकारग्रस्त स्त्री संवेदना मुक्त हो जाती है। एक बार ठान ले तो फिर समझौता कैसा। यह सारा खेल माया का ही है और आमतौर पर गृहस्थ आश्रम से निकलकर नि:श्रेयस की ओर बढऩे पर होता है। माया उसे मुक्त नहीं होने देना चाहती। नया जाल तैयार कर देती है। अहंकारवश व्यक्ति इसे विजय मानकर जीने लगता है। एक योनि से बाहर निकलकर दूसरी योनि में प्रवेश करने को लालायित हो उठता है।
आज तो विवाह विच्छेद की भूमिका भी विवाह पूर्व ही बनने लग जाती है। एक तो पुरुष की बराबरी का नशा, ऊपर से कानूनी ब्रह्मास्त्र का प्राप्त हो जाना। दोनों ही दृष्टि ने नारी का स्त्रैण वैभव छीन लिया। इसका परिणाम पश्चिमी देशों में तो यह हो गया है कि विवाह की पवित्र संस्था अपना प्राकृतिक स्वरूप ही खो बैठी। लडक़ा अपने ऊपर लडक़ी की उम्रभर की जिम्मेदारी लेने से पीछे हटने लग गया। विवाह सात जन्मों का बन्धन नहीं रहा। एक जन्म में ही एक से अधिक विवाह होने लगे। विवाह शरीर और अर्थ तक आकर ठहर गया है।
भारतीय सभ्यता इसी शैली की नकल कर रही है। जीवन मूल्यों को अर्थ के तराजू में तोला जाने लग गया है। मां के गर्भ से अब न तो अभिमन्यु ही पैदा होते हैं, न ही मां प्रथम
गुरु बनना चाहती। सच तो यह है कि नई स्त्री मां बनने को उत्सुक भी दिखाई नहीं पड़ती। एक सन्तान उसके मातृत्व का शिखर बन जाती है। धनी स्त्रियां तो एक का दर्द भी नहीं उठाना चाहतीं।
मुहूर्त के नाम पर पेट चीरकर सन्तान प्राप्त करना सहज समझती हैं।