कुछ संस्कार व्यक्ति के जन्म के साथ ही आते हैं। ये पिछले जन्मों से जुड़े होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि आज के मनोवैज्ञानिक भी करने लगे हैं। उनका शोध तो भारत की धारणा से भी बहुत आगे निकल गया है। उनका मानना है कि पिछले संस्कारों का प्रभाव जन्म-काल में ही विस्मृति में चला जाता है, किन्तु वह जीवन-भर व्यक्ति के साथ जुड़ा रहता है।
बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसके सामने मां-बाप की सीख इतनी आ जाती है कि उसके अपने स्वरूप की समझ ढक जाती है। जीवन-व्यवहार में धीरे-धीरे अन्य मान्यताएं, अवधारणाएं, सामाजिक परम्परा, नियम-कायदे उसके मन पर एक आवरण बनाते जाते हैं, उसके संस्कारों का मूल स्वरूप ढकता चला जाता है।
नया व्यक्तित्व
मां और पिता के अंश भी व्यक्ति में होते हैं जो उसके व्यक्तित्व-विकास में अपना प्रभाव जीवन-पर्यन्त बनाए रखते हैं। व्यक्ति का रिश्ता माता-पिता से कभी नहीं टूटता। ऊर्जा क्षेत्र में होने वाले शोध इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो ऊर्जा का क्षेत्र है, उसका विशेष भाग माता-पिता से ही जुड़ा रहता है।
माता-पिता, मित्र-परिजन और समाज के बीच रहकर व्यक्ति का एक नया व्यक्तित्व तैयार हो जाता है। वह सदा इस बोझ से दबा रहता है कि समाज उसको बुरा न मान ले। वह अच्छे से अच्छा आचरण करके समाज में अपना सम्मान बनाए रखने का प्रयास करता रहता है। यही भाव उसमें नए संस्कार प्रतिपादित करता है।
व्यक्ति के शरीर में पिछली सात पीढिय़ों तक का अंश होता है, जो उसके व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है। व्यक्ति के मार्ग में ज्यों-ज्यों निमित्त आते हैं, वे इन संस्कारों से जुड़ते जाते हैं। कुछ संस्कार पलते जाते हैं, कुछ छूटते जाते हैं। उनकी छाप व्यक्ति के अवचेतन मन पर अंकित होती रहती है। फिर, समान प्रकृति का निमित्त आते ही पिछली स्मृति उसका व्यवहार याद करा देती है। पिछले अनुभवों के आधार पर वह अगला व्यवहार करता चला जाता है।
यहां एक बात महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति की मूल प्रकृति पूरी उम्र ढकी ही रहती है। वह संसार में क्यों आया है, और वह कौन है, इसका आभास मात्र भी उसे नहीं हो पाता। किन्तु, उसका यह मूल स्वरूप भी उम्र भर अकुलाहट में दबा रहता है। हर क्षण होने वाले मन के अन्तद्र्वन्द्व का भी यही मूल है। वह कुछ करना चाहता है, नया व्यक्तित्व उसे नकारता चला जाता है। मूल व्यक्ति किसी के नियम-कायदों में रहना नहीं चाहता। अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहता है। यहीं पर हमारे दर्शन की भूमिका ‘अहम्ï’ की इकाई के रूप में पृथक्ï होती है।
स्वयं का चिंतन
सामाजिक जीवन में होने वाली सभी प्रक्रियाएं और प्रतिक्रियाएं व्यक्ति के इस द्वन्द्व से ही उत्पन्न होती हैं। मूल और अन्य के निरन्तर सम्पर्क के संस्कारों की रस्साकशी ही उसके व्यक्तित्व को सकारात्मक या नकारात्मक बनाती है। उसके प्रकृतिप्रदत्त गुण और रचनात्मक क्षमता का विकास ही नहीं हो पाता। कुछ व्यक्तियों में जीवन के थपेड़े इन संस्कारों का विसर्जन कर देते हैं। यह जागरण उनको विकसित कर देता है।
उनका रचनात्मक स्वरूप चमक उठता है और एक स्वतंत्र चिन्तन-धारा शुरू हो जाती है।
अपने जीवन को समझना हमारी जीवन-शैली का अंग रहा है। स्वाध्याय काल में स्वयं के बारे में चिन्तन करते रहना एक नियमित आवश्यकता है। इसी से व्यक्ति शनै:-शनै: अपने मूल स्वरूप तक पहुंच पाता है। अपने संस्कारों का परिष्कार कर पाता है। वह स्वयं को सृष्टि का अंग समझता है तथा आवरण दूर होने के साथ ही उसकी मूल शक्तियां जाग्रत हो जाती हैं। उसकी सामाजिक उपादेयता भी स्वत: बढ़ जाती है।