हमारी इस सृष्टि में निर्माण-स्थिति एवं संहार की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। इस प्रक्रिया में कम से कम दो तत्त्व होते हैं द्ग ब्रह्म और माया। विज्ञान कहता है कि सृष्टि में दो तत्त्व मूल में हैं। एक पदार्थ तथा दूसरा ऊर्जा यानी मैटर और एनर्जी। दोनों एक दूसरे में बदलते रहते हैं, किन्तु इनका ह्रास नहीं होता। वेद भी ब्रह्म और माया को ही इन दो तत्त्वों के रूप में देखता है। आगे जाकर इन्हीं को अग्नि-सोम के नाम से व्यवहार किया जाता है। आकाश में ये ही सूर्य-चन्द्रमा हैं, पर्जन्य और सोम हैं, पृथ्वी और वर्षा भी यही हैं, नर-नारी भी इन्हीं का रूपान्तरित अग्नि-सोम रूप हैं। अर्थात् नर-नारी भी तत्त्व रूप हैं, मात्र देह नहीं हैं। अग्नि-सोम के इस तात्विक स्वरूप को योषा-वृषा कहते हैं।
समय के साथ नर-नारी के देह में तो कोई परिवर्तन नहीं आया, किन्तु चिन्तन और जीवन शैली में बहुत परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन किस सीमा तक हितकर है तथा कहां जाकर विष उगलने लगता है, किसी को इसका आकलन करने का समय नहीं मिलता। सबसे बड़ी बात तो यह है कि स्त्री अपने भोग्या रूप को भी नहीं समझा पा रही और भोक्ता रूप में सफल भी नहीं हो पा रही। स्त्री (देह में) पुरुष के साथ स्वतंत्रता एवं समानाधिकार के साथ-जीने को उत्सुक है। उसे शायद स्वतंत्रता के अर्थ भी नहीं मालूम। क्या चन्द्रमा सूर्य से स्वतंत्र हो सकता है या पृथ्वी बिना वर्षा के औषधि और वनस्पति पैदा कर सकती है? इनको तो संवत्सर के तंत्र को शिरोधार्य करना ही पड़ेगा।
शरीर के साथ मन-बुद्धि-आत्मा (अध्यात्म) को भी सम्मिलित करना होगा। हम ऐसा नहीं करेंगे तो शरीरपरक मिथुन भाव तक ही सीमित रह जाएंगे। मानव देह तो पैदा कर सकेंगे, अभिमन्यु की कल्पना नहीं कर सकते। काम पुरुषार्थ की उस उदात्त अवधारणा का स्पर्श नहीं कर पाएंगे जो सृष्टि का मूल है। ‘कामस्तदगेे्र समवर्तताधि…’ अभिप्राय यह है कि जीव शरीरों के सृजन की प्रक्रिया केवल शरीर पर निर्भर नहीं है। वह दो मनों का मिलन तो है ही, दो आत्मरूपों का मिलन भी है। इसमें पिछले जन्मों के कर्मफल भी अपना प्रभाव डालते हैं। दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा आत्मिक ही है, शारीरिक नहीं है।
पश्चिम के प्रभाव में दाम्पत्य सम्बन्धों की हमारी यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि धुंधली पड़ती जा रही है। भौगोलिक दृष्टि से पूर्वी प्रदेश अग्नि प्रधान तथा पश्चिमी देश सोमप्रधान क्षेत्र है। वहां के नर-नारी शरीर पर प्रकृति के प्रभाव एक समान नहीं हो सकते। एक-दूसरे की नकल के परिणाम या दुष्परिणाम भी सामने आते जा रहे हैं। विवाह-विच्छेद की बढ़ती घटनाएं, ‘लिव-इन-रिलेशन’ द्ग जैसी अवधारणाएं तथा समलैंगिकता जैसी मानसिक विकृतियां प्रकृति विरुद्ध आचरण ही तो है। इनको कानूनी मान्यता देना मानवता को पाशविक स्वच्छन्दता की ओर धकेलना ही है। परम्परागत विवाह संस्था तो आज मानो ‘आउट-डेटेड्’ हो गई। जबकि इस संस्था का वैज्ञानिक आधार सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। मनुष्य जब पशु योनि से विकास की ओर बढ़ता है, तब विवाह का स्वरूप कुछ प्राकृतिक नियमों की वैज्ञानिकता को स्वीकारता है। ऐसी किसी समाज व्यवस्था पर नहीं ठहरता जिसे हम जब चाहें बदल डालें।
शिव का विश्व रूप ही अभ्युदय है और विश्व का शिव में लीन हो जाना ही नि:श्रेयस है। पहला निर्माण काल है, दूसरा निर्वाण काल। यही शिव-शक्ति का दाम्पत्य भाव है। यही भारतीय विवाह संस्कार की मूल अवधारणा है। नारी यज्ञ में भागीदार बनकर पत्नी का स्वरूप ग्रहण करती है। यही सृष्टि निर्माण की कामना का प्रथम ‘स्पन्द’ कहलाता है। शक्ति ही कामना बनकर आहुत होती है। दाम्पत्य रति ही निर्माण की भूमि बनती है। इसी से वानप्रस्थ में देवरति का प्रादुर्भाव होता है, जो निर्वाण का मार्ग प्रशस्त करती है।
नर आग्नेय है-सत्य है, नारी सौम्या है, ऋत है। केन्द्र रहित है। कामनाघन है। अभ्युदय ही इस कामना का लक्ष्य है। नर केन्द्र में जीना चाहता है। अंशी में लीन होने को जीवन भर आतुर रहता है। दाम्पत्य भाव में नर की प्रधानता गृहस्थी को अध्यात्म से जोड़े रखती है। नारी की प्रधानता भौतिक सुखों का जाल फैलाए रखती है। मन की चंचलता, आसक्ति, राग-द्वेष आदि क्लेशों में भी उलझी ही रहती है। भीतर आत्मा उसकी भी नर ही है, किन्तु लक्ष्य भोग ही रहता है, योग नहीं रहता।
यही नारी पत्नी रूप में संकल्पित होकर पति की शक्ति बन जाती है। पति को पूर्णता प्रदान करके स्वयं भी पूर्ण हो जाती है। दोनों का अद्र्धनारीश्वर स्वरूप पूर्णता को प्राप्त होता है। समय के साथ विरक्ति भी पत्नी ही पैदा करती है। यह कार्य अन्य नारी नहीं कर सकती। इसी विरक्त भाव के कारण पूर्णता प्राप्त ‘पति’ अपने नि:श्रेयस् मार्ग का चयन कर पाता है। शक्ति ही पुरुष शरीर में सदाशिव को प्रकट कर देती है। शरीर शव, आत्मा सदाशिव।
पश्चिम में विवाह के बाद भी पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए, अर्थात् एकाकार होकर नहीं जीते। दोनों ही स्वतंत्र पहचान बनाकर जीना चाहते हैं। आगे चलकर यही चिन्तन विवाह विच्छेद का कारण बनता है। पूर्व में विवाह विच्छेद की अवधारणा शास्त्रीय तो कभी नहीं थी। आदिम जातियों में ही रही थी। यहां विवाह का उद्देश्य दोनों द्ग ‘अभ्युद और नि:श्रेयस’ रहे हैं। जीवन के 25 साल पूर्ण होने पर विवाह के साथ ही ‘गृहस्थाश्रम’ की शुरुआत होती है। नारी का पत्नी रूप में, नर के जीवन में प्रवेश होता है। वह नर के साथ जीने के लिए आती है। अपना सब कुछ छोडक़र ही आती है (नाम और पहचान भी)। नारी सौम्या है और अग्नि में पूर्णरूपेण आहुत होने आती है। फिर से माता-पिता के घर में जाकर जीना उसका स्वप्न नहीं होता।
तब जीवन के शेष 75 साल उसको पति के घर में क्या करना है? पहले तो उस घर में अपना स्वामित्व स्थापित करना है। पति को अपने वशीभूत करना है, ताकि वह हर सलाह को स्वीकार कर सके। इसके लिए पति को रिझाना उसका पहला और अनिवार्य कर्म होता है। वह पति की ‘शक्ति’ है। उसे दाम्पत्य रति-वात्सल्य, स्नेह, श्रद्धा, प्रेम का अभ्यास कराती है। उसके अग्नि प्रधान जीवन में इन गुणों का स्थान कहां हो सकता है? वह अपने माधुर्य और लालित्य के सहारे उसमें मिठास घोलने का प्रयास करती है। उसे भी स्त्रैण बनाने का प्रयास करती है। यही तो पुरुष का वह निर्माण है, जो निर्वाण की पृष्ठभूमि है। विवाह पूर्व जो व्यक्ति स्वच्छन्द था, नारी साहचर्य से अनभिज्ञ था, कोरा पत्थर था-संवेदनाहीन था, उसे कड़ुवे-मीठे बोल से पूर्णता देती है। उसके अधूरेपन की पूर्णता उसकी स्वयं की पूर्णता बन जाती है। सही अर्थों में वही नर की भोक्ता है। जीवन के 25 वर्षों में पुरुष का निर्माण ऐसे करती है कि 50 वर्ष की उम्र में पुरुष के मन में एक विरक्ति का भाव भी पैदा कर देती है। उसके जीवन के निर्माण क्रम से बाहर होकर उसे निर्वाण पथ पर खड़ा कर देती है। यहां से जीवन का तीसरा आश्रम-वानप्रस्थ शुरू हो जाता है। अब दोनों पूर्ण भी हैं और मित्र भी हैं।
वानप्रस्थ गृहस्थ कार्यों से मुक्ति का काल है। धारणा-ध्यान-समाधि-सेवा के अभ्यास का काल है। मन में विरक्ति का भाव यदि नहीं आया, तो व्यक्ति कभी वानप्रस्थ को सही रूप में सार्थक नहीं बना सकता। यह कार्य तो न स्वयं व्यक्ति ही कर सकता है, न कोई अन्य नारी ही कर सकती है। अन्य नारी तो आसक्ति ही पैदा करेगी, चंचलता पैदा करेगी। तब कहां ध्यान और कहां समाधि?
पत्नी वानप्रस्थ में पति के मन को प्राण और वाक् (सृष्टि क्रम) से हटाकर आनन्द-विज्ञान (मोक्ष साक्षी क्रम) से जोड़ती है। आध्यात्मिक दाम्पत्य रति को आधिदैविक देवरति में प्रेरित करती है। जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) ही तो है। कामनामुक्त व्यक्ति ही मोक्ष प्राप्त करता है। नारी या नर दोनों ही अकेले रहकर कामनामुक्त नहीं हो सकते। यही आज पश्चिम की मूल समस्या है। न अकेले रह सकते, न दूसरे का बनकर ही रह सकते। एक साथी से विरक्त होते ही दूसरे की तलाश शुरू हो जाती है। जीवन आहार-निद्रा-भय-मैथुन में बंधकर रह जाता है। अभ्युदय प्राप्त हो जाता है। नि:श्रेयस उनके चिन्तन का विषय ही नहीं होता। हमें इससे बचना है। दाम्पत्य सम्बन्धों की अपनी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि की उज्ज्वलता को बनाए रखना है। तभी हम विश्व को बता पाएंगे कि नारी क्या है और क्या कर सकती है?