शस्त्रधारी नागा संतों की ५२ गद्दियां व तीन अनी अखाड़ों का गठन संत बालानन्द के नेतृत्व में सन् १७२९ में वृंदावन में किया गया। इस
काम में गलता के हर्याचार्य, निम्बार्क के वृंदावनदेवाचार्य, दादूपंथी मंगलदास व रेवासा आदि पीठों के संत अखाड़ा साथ रहे। १७८९ के नासिक कुंभ में संतों को बचाने के लिए हुए युद्ध में संत बालानन्द की सेना ने वीरता दिखाई। औरंगजेब ने मूर्तियों को खंडित करने का अभियान चलाया तब नागा संतों के सहयोग से वृंदावन आदि से भगवान की मूर्तियों को राजस्थान में भेजा गया।
भरतपुर के महाराज सूरजमल ने संत बालानंद के सहयोग से
आगरा किले पर भी कब्जा कर लिया और वहां से किवाड़ भी उतार लाए । अयोध्या राम जन्म भूमि को लेकर हुए युद्ध में संत बालानन्द ने गुरुभाई संत मानदास के साथ वीरता दिखाई। सवाई प्रतापसिंह व महादजी सिंधिया के बीच हुए तूंगा युद्ध में नागा सेना ने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। मेवाड़ की कृष्णा कुमारी के मामले में जयपुर व मारवाड़ के बीच १४ मार्च १८०७ को हुए गिगोली युद्ध में गंभीरानंद की अगुवाई में संतों की सेना ने भाग लिया।
बरसाना के जाट मुगल युद्ध में नागा सेना ने जाटों के पक्ष में युद्ध लड़ा। इसमें पांच हजार सैनिक घायल हुए और करीब दो हजार मारे गए। संत बालानंद के जयपुर से जाने पर महाराजा उन्हें विदा करने और वापस आने पर अगवानी करने पहुंचते। रेलवे स्टेशन के पास बड़ौदिया गांव के अलावा तेवड़ी, कारवा आदि इनकी जागीर में रहे। वृंदावन, गोवर्धन, भरतपुर व लोहार्गल आदि में संत बालानंद के मंदिर व बाग थे। इतिहासकार आनन्द शर्मा के मुताबिक महाराजाओं ने संत बालानन्द व गद्दी के महंतों को सम्मान दिया।
मठ की छावनी में सेना के लिए गेहूं भी बैलों की चक्की से पिसता था। मठ में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के साथ सीता, उर्मिला, मांडवी व कीर्ती की भी पूजा होती है। अष्ट दिग्गज गद्दी के वेंकटेश, रंगनाथ, श्रीतोताद्रिनाथ, श्री वरदराज के अलावा शठकोप चरण पादुकाओं पूजा होती है। विजय राघव व धनुर्धारी
हनुमान को युद्ध में आगे रखा जाता। जेठ सुदी पंचमी को संत बालानन्द की जयंती पर नागा साधु अपने कमांडर को आज भी ढोक देने आते हैं। अजबगढ़ युद्ध में गोविंदानन्द ने जयपुर की तरफ से युद्ध लड़ा। गोविंदानंद के बाद गंभीरानंद मठ के महंत बने। आजादी के बाद नागा साधुओं ने अपने यौद्धा स्वरूप को त्याग दिया और केवल मात्र आध्यात्म की राह पकड़ ली।