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धर्म और अध्यात्म

दृष्टा से निर्वाण की यात्रा है अध्यात्म

ध्यान की मंजिल साक्षीत्व है। साक्षीत्व की मंजिल समाधि है। समाधि की मंजिल निर्वाण है। यानी, दृष्टा बनना अंतर्यात्रा की शुरुआत है।

Feb 16, 2018 / 04:32 pm

सुनील शर्मा

girl in meditation

girl in meditation, mantra chanting

अंतर्यात्रा ध्यान से शुरू होती है लेकिन इसकी मंजिल है निर्वाण। समाधि इन दोनों के मध्य में है। संक्षेप में कहें तो दृष्टा की मंजिल ध्यान है। ध्यान की मंजिल साक्षीत्व है। साक्षीत्व की मंजिल समाधि है। समाधि की मंजिल निर्वाण है। यानी, दृष्टा बनना अंतर्यात्रा की शुरुआत है। ध्यान, साक्षी, सुमिरन और समाधि इसके मील के पड़ाव हैं। मंजिल निर्वाण है। गुरु अर्जुनदेव कहते हैं कि जिस दिन आप हरि को जानते हैं, जिस दिन से सुमिरन और समाधि के गुर सीखते हैं। वहीं से आपकी परमगति शुरू होती है। यानी सारी गति विदा हो गई। गति का शून्य होना ही परमगति है। इसे ही बुद्ध ने निर्वाण और परम विश्राम कहा है।
अंतर्यात्रा की शुरुआत
अंतर्यात्रा दृष्टा भाव से अर्थात उस बिंदु से शुरू होती है जब हम अपने कंप को देखना शुरू करते हैं। कंप यानी अपने क्रोध को, विचारों को, अपनी सांसों को, अपने भावों को, अपनी कल्पना को, अपनी धारणा को और शरीर के मूवमेंट्स को देखना, इनके प्रति होश से भरना। चित्त में कोई भी कंपन हुआ। चाहे शरीर के तल पर या प्राण के तल पर, उसके प्रति जागरुकता का नाम दृष्टा है। दृष्टा ऑब्जेक्टिव अवेयरनेस है, बाहरी ध्यान है। बाहर केवल वही नहीं है जो शरीर से परे है। शरीर के भीतर भी, जो कुछ अस्मिता से परे है, वह सब बाहरी तत्त्व में गिना जाता है। इस दृष्टि से सांस, मन, विचार, इंद्रिय भोग सब बाहरी तत्त्व हैं। लेकिन ध्यान की शुरुआत दृष्टा से ही होती है और ध्यान की अनुभूति का अर्थ है शून्यता की अनुभूति। जब आप स्वयं में पूरी तरह डूब जाते हैं, केवल निराकार का ही ध्यान रहता है तो शून्यता की स्थिति का एहसास होने लगता है। लंबे समय तक यही स्थिति अंतर्यात्रा की शुरुआत कही जा सकती है।
शून्यता में ठहराव
ध्यान का परिणाम है शून्यता, निराकार। शरीर में होते हुए शून्य का अहसास। दृष्टा भाव से शून्यता में ठहराव की स्थिति आती है। शून्यता का मतलब हुआ कि अब कंप तो नहीं है लेकिन अकंप की गहराई अभी नहीं मिली है। अपनी अशांति के पार तो चले गए लेकिन शांति अभी उथली-उथली है, सतह पर ही है। अब इस मोड़ पर आप अपने अकंप को देखना शुरू करें। अकंप में कोई क्षोभ-अक्षोभ नहीं है। यह सब्जेक्टिव अवेयरनेस की स्थिति है। अपने कंप-अकंप दोनों को साथ-साथ देखने का नाम ही साक्षी है। साक्षी यानी सांसों और उसके पार अप्रभावित चेतना-दोनों को साथ-साथ देखना। अकंप में गहरे प्रवेश करना ही तथाता है।
हरिस्मरण में जियो
पहले इन्द्रिय से मन पर आओ, फिर मन से बोध पर उतरो, कंप से अकंप पर यानी साक्षी पर उतरो। इसके बाद हरिस्मरण यानी सुमिरन मे जियो। फिर हरि में, समाधि में लीन हो जाओ। समाधि का अर्थ है-अब गोविंद आपकी ओर आने लगा है। यहीं से चेतना स्वकेंद्रित होनी शुरू होती है। ध्यान रहे, हरि के पहले ध्यान तो होता है लेकिन सुमिरन और समाधि नहीं होती। हरि-स्मरण में जीना तभी शुरू करो जब हरि को जान लो। पहले सिर्फ ध्यान ही किया जा सकता है। हरि का अर्थ है-ओंकार। जब तक नाम को न जान लिया जाए तब तक आगे की यात्रा संभव नहीं होती। नाम जाने बगैर कोई कितना ही ध्यान करे, लेकिन वह बाहर की दौड़ होगी।
परमगति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य
आप जहां हैं, वहीं ठहर जाने का नाम निर्वाण है। यही संन्यासी का गंतव्य है। आप जहां से चलना शुरू करते हैं, जब वहीं पहुंच जाएं तो समझिए, मंजिल आ गई। लेकिन चलना तो पड़ता है क्योंकि तभी पता चलता है कि जहां से चले थे, पहुंचना वहीं है। पहले हमारी चेतना गुरु की ओर जाती है, फिर गोविंद की ओर। लेकिन एक दिन दिशा पलट जाती है। उस दिन आप महसूस करते हैं कि आपकी चेतना अनागामी हो गई है। न तो आपकी चेतना आपसे कहीं दूर जाती है और न ही आप गुरु या गोविंद की कृपा-तरंगों को अपनी ओर आता महसूस करते हैं। यही अनहद में विश्राम की स्थिति है। जिस दिन आप भी कह सकें, ‘भलो भयो हरि बिसरयो, सर से टली बलाय, जैसे को तैसा हुआ, अब कछु कहा न जाए। उस दिन समझिए आपका निर्वाण हुआ। उस दिन समझिए, आपकी यात्रा पूरी हुई। ठहराव की वह स्थिति ही परमगति है। उसी दिन समझिए कि जिसके लिए यह मनुष्य जन्म मिला था, वह उद्देश्य पूरा हुआ।

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