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Holi Special : लोक संस्कृति जहां जिंदा है, उस समाज को कोई खतरा नहीं, इसके पीछे ये है वजह

– विंध्य की लोक गायिका सुषमा शुक्ला से खास बातचीत

रीवाMar 20, 2019 / 02:48 pm

Mrigendra Singh

– विंध्य की लोक गायिका सुषमा शुक्ला से खास बातचीत

रीवा। विंध्य की लोककला को नया मुकाम देने वाली लोक गायिका सुषमा शुक्ला लंबे अर्से से बघेली लोकगीतों का गायन कर रही हैं। उनकी आवाज के जादू ने इन लोकगीतों का प्रचलन भी बढ़ा दिया है। यू-ट्यूब के माध्यम से करीब तीस लाख से अधिक लोगों तक उन्होंने बघेली लोकगीत पहुंचा दिया है। होली के त्योहार के अवसर पर उनके फगुआ गीत काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। पत्रिका से चर्चा करते हुए सुषमा ने कहा कि बचपन से ही बघेली गीतों को लेकर उनकी रुचि रही है। 1992 से आकाशवाणी में गीतों की प्रस्तुति देती आ रही हैं। उनका कहना है कि लोक संस्कृति समाज में अपनेपन का भाव उत्पन्न करती है। जहां पर लोक संस्कृति जिंदा है, उस समाज को कोई खतरा नहीं हो सकता। जिन स्थानों पर लोक संस्कृति समाप्त हुई वहां के समाज का भी पतन शुरू हो गया है। इनका मानना है कि समाज के हर व्यक्ति को अपनी लोक संस्कृति को बचाने में योगदान देना चाहिए। उन्होने बताया कि उनके पति योगेन्द्र शुक्ला का इस कार्य में पूरा सहयोग रहता है।
तीन तरह के गीत विंध्य में प्रचलित
सुषमा बताती हैं कि विंध्य में तीन तरह के लोकगीत गाए जाते हैं। पहला संस्कार परख गीत होता है, जो जन्म से लेकर वैवाहिक आयोजन एवं अन्य उत्सव से जुड़े संस्कारों में गाए जाते हैं। इसमें सोहर, बधाई, अंजुरी, बिआह, नहछू, परछन, गारी, कन्यादान, बरुआ सहित अन्य शामिल हैं। वहीं दूसरा ऋतुपरख लोकगीत है जो मौसम के अनुसार गाया जाता है। जैसे इनदिनों होली का सीजन है तो फगुआ गाया जाता है। सावन के महीने में कजली और हिन्दुली गाए जाते हैं। नवरात्र के दिनों में भगत गाई जाती है। इसी तरह जाति परख गीत भी हैं। जिसमें आदिवासियों द्वारा शैला, कोलदहका, यादवों के लिए अहिरहाई सहित अन्य गीत शामिल हैं।
महाराजा रघुराज सिंह ने भी लोक संस्कृति बचाने का किया था प्रयास
रीवा राजघराने के महाराजा रघुराज सिंह ने भी लोक संस्कृति को बचाने के लिए प्रयास किया था। उन्होंने बड़ी संख्या में बघेली लोकगीत लिखे थे। सुषमा बताती हैं कि बनरा लोकगीत वह भी महाराजा के लिखे हुए गाती हैं, जिन्हें काफी पसंद किया जाता है। इसके अलावा अन्य कई लोगों ने भी प्रयास किया लेकिन बढ़ती आधुनिकता ने इस पर प्रभाव डाला था। अब सोशल मीडिया के जमाने में एक बार फिर बघेली लोक संस्कृति को नया मुकाम मिल रहा है।

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