होली आई रे...वरिष्ठ साहित्यकार बोले-वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे!
अभावों में भी भावों का शंहशाह पूरा गांव होली में हो जाता था, आज सबकी सम्पन्नता के बावजूद जीवन में भाव (स्नेह-आदर-श्रद्धा-दूसरों का सम्मान) की कमी है।

रीवा. होली नजदीक है। सभी पर होली का रंग चढ़ा नहर आ रहा है। लेकिन होली के पर्व पर वह उत्साह लगता है अब नहीं रहा जो सालों पहले हुआ करता था। आइए जानते हैं होली के त्यौहार के बारे में वारिष्ठ साहित्यकार डॉ. चंद्रिका प्रसाद चंद्र तब और अब के बीच क्या सोचते हैं उन्हीं की जुबानी।
डॉ. चंद्र बताते हैं जब हम दस बारह वर्ष के थे तो जानते थे साल में एक ही त्यौहार होता है जिसे होली या फगुआ कहते थे। दूसरा कोई त्यौहार इतने धूमधाम से तैयारी के साथ नहीं होता था। रिश्तों में हमारे काका-बाबा अधिक थे। बड़े भाइयों की संख्या कम थी। गांव में फगुआ (होली) देवर-भाभी का त्यौहार माना जाता था। पूरे गांव में एक दो भाभियां थीं और देवरों की संख्या पचास-साठ। मां कहती कि भौजी के यहां जाना चरण छूकर प्रणाम करना और आंख अंजवाकर आना।

सालभर से प्रतीक्षा रहती कि यह त्यौहार आए। भौजी के पास जाने से डर लगता। एक तो देवरों की भीड़ उस पर गालों में गुलाल का भौजी के हाथों तब तक मलना जब तक गाल और रंग मिल न जाय और लाल न हो जाय। आंसू आ जाते। भौजी बड़े प्रेम से घर का बना पेंड़ा खिलाती अपने सीने में चिपका कर खूब दुलारती। रूमाल छीन लेती, बिना कुछ पैसे दिए वापस न करती।
पैसे अपने पास होते नहीं थे, मां से एक दो पैसे मांगकर देते और रूमाल पाते। भौजी पान के पत्तों का मुरब्बा खिलाती। हम भी खाकर जीभ देखते कि लाल हुई कि नहीं। लाल होते ही जीभ को होंठो पर फिराकर लालिमा का अहसास करते। भाभी के आंगन की भीड़ का उत्साह और रंग डालने की प्रतीक्षा आज जब याद आती है तो बरबस चन्द्रप्रकाश वर्मा की कविता याद आती है- मेरे आंगन में भीड़ लगी, मैं किसको किसको प्यार करूं।
जब फगुहार ढोल, मंजीरा, नगरिया लिए प्रत्येक घर में पच्चीस-पचास लोग फगुआ गाने इक_ा होते हम बच्चे लोग सुपाड़ी के लिए हाथ पसारते। एक टुकड़ा भी मिल गया तो एक छोट-छोटी थैली हम सभी ने सिलवा रखी थी, उसी में सुपाड़ी रखकर महीनों के लिए मालामाल मानते। लोगों में कोई कटुता नहीं। यदि कभी हुआ भी तो फगुआ सब खतम कर देता।
अभावों में भी भावों का शंहशाह पूरा गांव होली में हो जाता था, आज सबकी सम्पन्नता के बावजूद जीवन में भाव (स्नेह-आदर-श्रद्धा-दूसरों का सम्मान) की कमी है। सभी अपने अहं में डूबे हैं। रिश्तों की डोर कमजोर हुई है। काका-बाबा के हाथ का बनाया हआ छिउला (पलाश-टेशू) के फूलों का रंग एवं रामरज का पीला गेहूं और जानकी रज का लाल रंग कैसे, कब कहां गुम हो गया, इसके बनाने वाले भी नहीं रहे, बताने वाले भी।
फगुआ में कबीर कहने की परम्परा थी, जो बहुत ही अश्लील होती थी। उसके बन्द होने से अश्लीलता से छुटकारा मिला। जो अपेक्षया सम्पन्न होते थे उनके यहां भांग घुटती थी या भंगकतरी खाकर हम बच्चे लोग भी खूब हंसते थे, खाना मीठा लगता था अब उसमें कुछ लोग धतूरा मिलाकर विषाक्त बनाने लगे हैं। भांग का स्थान नई पीढ़ी के लिए शराब ने ले ली है, जिससे झगड़े होने लगे हैं।
अब अतीत के वे दिन याद करते हुए बहुत सुखद अनुभूति होती है। आंख आंजने के लिए वे अंजन भी नहीं रहे और चिकित्सा विज्ञान ने काजल लगाने से हानि की मुनादी कर दी है। वह फगुआ भी मर गया जिसमें भौजी कहती थी-
कजरौटी रे मोर चोरी चली गइ। भइ कजरे केर बेरा। बरबस प्रसाद जी याद आते हैं-वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे।
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