मुंबई, सूरत, अहमदाबाद जैसे सुदूर शहरों से पैदल, साइकिल से, ट्रकों से, श्रमिक स्पेशल ट्रेन से, बसों से आने वाले लोगों के एक आश्रय स्थल तक मुहैया नहीं कराया जा रहा है। मजबूरी में वो गांवों में इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच पेड़ के नीचे पूरी दुपहरिया बिताने को विवश हैं।
दूसरे प्रदेशों व गैर जिलों से आने वालों के लिए पर्याप्त इंतजाम करने में रीवां प्रशासन पूरी तरह से फेल नजर आ रहा है। कहने को इन लोगों के लिए भारी भरकम बजट आवंटित किया गया है। लेकिन वह बजट कहां गया जब ये पेड़ों के नीचे रहने को विवश हैं। एक क्वारंटीन सेंटर तक का इंतजाम नहीं हो पाया है.
रीवां के अधिकांश गांवों में लोग पेड़ों के नीचे ही डेरा डाले हैं। अब गोविंदगढ थाने के गांवों पर नजर डालें तो टीकर पंचायत में करीब 70 प्रतिशत लोग पेड़ों के नीचे रह रहे हैं। इनके लिए पंचायत ने कोई व्यवस्था नहीं की है। ये लोग गुजरात, महाराष्ट्र सहित अन्य शहरों में नौकरी करते रहे, कोरोना के चलते लॉकडाउन में काम-धंधा बंद हो गया तो गांव घर लौटे हैं। कोरोना प्रोटोकॉल के तहत इन्हें क्वारंटीन किया जाना है, पर क्वारंटीन सेंटर ही नहीं है।
ये केवल टीकर पंचायत का ही हाल नहीं है, यह तो एक नजीर है, पूरे जिले में इसी तरह का आलम है। दूसरे प्रांत के लोगों ने तो इस संकट की घड़ी में इन्हें नहीं ही पूछा, अपने गांव में भी इनकी मुसीबते कम नहीं हुईँ। ये लोग पेड़ों के नीचे क्वारंटीन हैं कि इनका परिवार बचा रह सके।
इन्हें न हाथ धोने के लिए साबुन दिया गया है, न मास्क का इंतजाम है। सेनेटाइजर तो दूर की बात है। ऐसे में ये सारी व्यवस्था भी इन्हें खुद से करनी हो रही है। भोजन-पानी का इंतजाम भी अपने से ही करना है।
हम मुंबई से वापस लौटे हैं. जिस दिन से गांव आए उस दिन स्कूल और पंचायत भवन गए थे। लेकिन वहां ताला बंद था। कोई मिला भी नहीं तो मजबूरी में हम लोग पेड़ के नीचे ही ठांव बना लिए। घर जा नहीं सकते कि परिवार के लोग बचे रहे हैं तो यहीं क्वारंटीन हैं। ऐसे पड़े है कोई पूछने वाला नहीं। राजकुमार विश्वकर्मा
मुंबई में मजदूरी करते थे। वापस लौटे तो ट्रेन में भी भोजन-पानी नहीं मिला। जब गांव आए तो यहां भी न कोई जांच करने आया न हमारे लिए किसी तरह की व्यवस्था ही की गई। हम लोग पेड़ के नीचे क्वारंटीन अवधि गुजारने को मजबूर हैं। विजय रावत