बरसात के सीजन में अन्य सीजनों की तुलना में डेढ़ गुना प्रसव के केस बढ़ जाते हैं। गांधी स्मारक चिकित्सालय विंध्य क्षेत्र का टर्सरी सेंटर हैं। यहां रीवा, सतना, सीधी, सिंगरौली, पन्ना सहित शहडोल संभाग के जिला अस्पतालों से प्रसव के गंभीर केस रेफर किए जाते हैं। गायनी विभाग के पास कुल 90 बेड हैं। जिसमें गायनी आइसीयू और लेबर रूम में कुल 30 बेड हैं। जो हमेशा फुल रहते हैं। जुलाई, अगस्त और सितंबर महीने में प्रति माह 800 से अधिक प्रसव लेबर रूम में होने का पिछला रिकार्ड रहा है। बीते वर्ष इन महीनों में लेबर रूम में भर्ती के लिए वेटिंग चल रही थी, बेड की कमी के कारण गर्भवती को लेबर रूम के बाहर घंटों इंतजार करना पड़ता था। अस्पताल प्रबंधन ने बीते वर्ष की परेशानियों से कोई सबक नहीं लिया है। गर्भवती को समय पर बेड मुहैया कराने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है।
हर दिन औसतन 30 भर्ती
जुलाई माह शुरू होते ही लेबर रूम में भीड़ बढऩे लगी। पांच दिनों में 163 गर्भवती महिलाएं लेबर रूम में प्रसव के लिए भर्ती की गई हैं। औसतन प्रतिदिन 32 गर्भवती भर्ती हो रही हैं। वहीं ओपीडी में इसी अवधि 601 गर्भवती महिलाएं उपचार के लिए पहुुंची हैं। यह आंकड़ा अगस्त में और अधिक हो जाएगा।
डॉक्टर बढ़े, बेड नहीं
बीते दिनों असिस्टेंट प्रोफेसर और रेजीडेंट डॉक्टरों की भर्ती की गई। जिससे गायनी विभाग में डॉक्टरों की संख्या पहले से बढ़ गई है लेकिन बेड उतने ही हैं। जुलाई, अगस्त और सितंबर में एक बेड पर चार जिंदगियां यहां आसानी से देखी जा सकती हैं। जच्चा-बच्चा ऐसी हालत में होते हैं कि उन्हें करवट लेने की जगह भी नहीं होती। तीन दिन अस्पताल के बेड पर काटना मुश्किल हो जाता है। बावजूद इसके अस्पताल प्रबंधन मूक दर्शक बना हुआ है।
हर दिन औसतन 30 भर्ती
जुलाई माह शुरू होते ही लेबर रूम में भीड़ बढऩे लगी। पांच दिनों में 163 गर्भवती महिलाएं लेबर रूम में प्रसव के लिए भर्ती की गई हैं। औसतन प्रतिदिन 32 गर्भवती भर्ती हो रही हैं। वहीं ओपीडी में इसी अवधि 601 गर्भवती महिलाएं उपचार के लिए पहुुंची हैं। यह आंकड़ा अगस्त में और अधिक हो जाएगा।
डॉक्टर बढ़े, बेड नहीं
बीते दिनों असिस्टेंट प्रोफेसर और रेजीडेंट डॉक्टरों की भर्ती की गई। जिससे गायनी विभाग में डॉक्टरों की संख्या पहले से बढ़ गई है लेकिन बेड उतने ही हैं। जुलाई, अगस्त और सितंबर में एक बेड पर चार जिंदगियां यहां आसानी से देखी जा सकती हैं। जच्चा-बच्चा ऐसी हालत में होते हैं कि उन्हें करवट लेने की जगह भी नहीं होती। तीन दिन अस्पताल के बेड पर काटना मुश्किल हो जाता है। बावजूद इसके अस्पताल प्रबंधन मूक दर्शक बना हुआ है।