पैसा ही सब कुछ नहीं होता
एमडी मेडिसिन डॉ. केके परौहा की उम्र 80 साल है। वह रीवा मेडिकल कॉलेज से पढ़े और यहीं पर लंबे समय तक नौकरी की। कभी भी डॉक्टरी पेशे को उन्होंने व्यवसाय नहीं बनाया। 1988 में सेवानिवृत्त होने के बाद गुढ़ चौराहे के समीप क्लीनिक खोली। आज के दौर में जब अच्छे डॉक्टरों की फ ीस 500 रुपए है तो डॉ. परौहा 100 रुपए मरीज से लेते हैं। इसी में दवा भी दे देते हैं। वह समाज सेवा में भी आगे हैं। रीवा में टेबल टेनिस खेल को ऊंचाइयां दी हैं। पत्नी प्रो. उमा परौहा की मृत्यु कैंसर से हो गई थी जिसके बाद उनके नाम से टेबल टेनिस प्रतियोगिता कराते हैं। गरीब मरीज पहुुंच जाता है तो फीस भी नहीं लेते हैं। बाढ़ पीडि़तों का दर्द बांटने में हमेशा आगे रहे। वह कहते हैं कि डॉक्टरी पेशा सेवा भाव का है। इसमें समर्पण चाहिए। पैसा ही सबकुछ नहीं होता है।
जीते हैं सामान्य डॉक्टर की जिंदगी
गरीब का बच्चा बीमार होता है तो परिजन बिना किसी से पूछे डॉ. प्रमोद जैन के पास जाते हैं क्योंकि उसे पता होता है कि वहां पर फीस कम लगने के साथ सस्ती दवाएं लिखी जाएंगी। डॉ. प्रमोद सरकारी सेवा में कभी नहीं गए। एक क्लीनिक खोली और करीब बीस साल पहले 20 रुपए फीस पर उपचार शुरू किया और आज 100 रुपए शुल्क पर मरीजों का इलाज कर रहे हैं। उनके सेवा भाव को देखते हुए गरीब उन्हें अपना डॉक्टर मानते हैं। डॉ. जैन डॉक्टरी पेशे के साथ-साथ किताबों के लेखन में भी रुचि रखते हैं। व्यवसाय के दौर में भी डॉक्टरी पेशे का मान बनाए हुए हैं। निजी अस्पताल होने के बाद भी वह सामान्य डॉक्टर की जिंदगी जीते हैं। लग्जरी गाडिय़ों में चलने का शौक नहीं। सौम्य व्यवहार पहचान है। वह कहते हंै मरीजों की सेवा ही सबसे बड़ा धन है। उनका स्नेह ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
गांव के मरीजों को रहे समर्पित
बैकुंठपुर के डॉ. दिवाकर सिंह सिरमौर क्षेत्र के मरीजों के लिए भगवान से कम नहीं हैं। 1974 में रीवा के मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद चाहते तो भोपाल, इंदौर के बड़े अस्पतालों में नौकरी करते लेकिन डॉ. दिवाकर सिंह ने गांव का जीवन अपनाया। वह बताते हैं कि उस वक्त गांव में दूर-दूर तक डॉक्टर नहीं होते थे। गांव के मरीज को शहर के अस्पताल आना पड़ता था। इलाज के अभाव मेें बहुत मौतें होती थी। यह देखना दुखद था। तब निर्णय लिया था कि गांव में ही प्रैक्टिस करूंगा। एमबीबीएस करने के बाद से ही बैकुंठपुर में क्लीनिक खोली और उपचार शुरू किया। कहते हैं कि मात्र 30 रुपए शुल्क लेते हैं जिसमें मरीज की दवा और उपचार हो जाता है। वह कहते हैं कि गांव में डॉक्टरों को रहने की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी आबादी आज भी चिकित्सा के अभाव में जीने को मजबूर है। नई पीढ़ी के चिकित्सकों को यह सोचने और अमल करने की जरूरत है।
एमडी मेडिसिन डॉ. केके परौहा की उम्र 80 साल है। वह रीवा मेडिकल कॉलेज से पढ़े और यहीं पर लंबे समय तक नौकरी की। कभी भी डॉक्टरी पेशे को उन्होंने व्यवसाय नहीं बनाया। 1988 में सेवानिवृत्त होने के बाद गुढ़ चौराहे के समीप क्लीनिक खोली। आज के दौर में जब अच्छे डॉक्टरों की फ ीस 500 रुपए है तो डॉ. परौहा 100 रुपए मरीज से लेते हैं। इसी में दवा भी दे देते हैं। वह समाज सेवा में भी आगे हैं। रीवा में टेबल टेनिस खेल को ऊंचाइयां दी हैं। पत्नी प्रो. उमा परौहा की मृत्यु कैंसर से हो गई थी जिसके बाद उनके नाम से टेबल टेनिस प्रतियोगिता कराते हैं। गरीब मरीज पहुुंच जाता है तो फीस भी नहीं लेते हैं। बाढ़ पीडि़तों का दर्द बांटने में हमेशा आगे रहे। वह कहते हैं कि डॉक्टरी पेशा सेवा भाव का है। इसमें समर्पण चाहिए। पैसा ही सबकुछ नहीं होता है।
जीते हैं सामान्य डॉक्टर की जिंदगी
गरीब का बच्चा बीमार होता है तो परिजन बिना किसी से पूछे डॉ. प्रमोद जैन के पास जाते हैं क्योंकि उसे पता होता है कि वहां पर फीस कम लगने के साथ सस्ती दवाएं लिखी जाएंगी। डॉ. प्रमोद सरकारी सेवा में कभी नहीं गए। एक क्लीनिक खोली और करीब बीस साल पहले 20 रुपए फीस पर उपचार शुरू किया और आज 100 रुपए शुल्क पर मरीजों का इलाज कर रहे हैं। उनके सेवा भाव को देखते हुए गरीब उन्हें अपना डॉक्टर मानते हैं। डॉ. जैन डॉक्टरी पेशे के साथ-साथ किताबों के लेखन में भी रुचि रखते हैं। व्यवसाय के दौर में भी डॉक्टरी पेशे का मान बनाए हुए हैं। निजी अस्पताल होने के बाद भी वह सामान्य डॉक्टर की जिंदगी जीते हैं। लग्जरी गाडिय़ों में चलने का शौक नहीं। सौम्य व्यवहार पहचान है। वह कहते हंै मरीजों की सेवा ही सबसे बड़ा धन है। उनका स्नेह ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
गांव के मरीजों को रहे समर्पित
बैकुंठपुर के डॉ. दिवाकर सिंह सिरमौर क्षेत्र के मरीजों के लिए भगवान से कम नहीं हैं। 1974 में रीवा के मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद चाहते तो भोपाल, इंदौर के बड़े अस्पतालों में नौकरी करते लेकिन डॉ. दिवाकर सिंह ने गांव का जीवन अपनाया। वह बताते हैं कि उस वक्त गांव में दूर-दूर तक डॉक्टर नहीं होते थे। गांव के मरीज को शहर के अस्पताल आना पड़ता था। इलाज के अभाव मेें बहुत मौतें होती थी। यह देखना दुखद था। तब निर्णय लिया था कि गांव में ही प्रैक्टिस करूंगा। एमबीबीएस करने के बाद से ही बैकुंठपुर में क्लीनिक खोली और उपचार शुरू किया। कहते हैं कि मात्र 30 रुपए शुल्क लेते हैं जिसमें मरीज की दवा और उपचार हो जाता है। वह कहते हैं कि गांव में डॉक्टरों को रहने की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की बड़ी आबादी आज भी चिकित्सा के अभाव में जीने को मजबूर है। नई पीढ़ी के चिकित्सकों को यह सोचने और अमल करने की जरूरत है।