दरअसल, शहर में ऐसे कई लोग हैं, जो गरीबी की जकडऩ के बीच आसमान के नीचे ही सर्द रातें गुजारने के लिए मजबूर हैं। मानों इन्होंने आसमान को ही कंबल और रजाई बना लिया है। ये वह असहाय लोग हैं, जिनका या तो कोई नहीं है या इनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि अपने लिए छत की व्यवस्था भी कर सकें। शहर के बस स्टैंड, जिला अस्पताल व कुछ मंदिरों के परिसर सहित अन्य कई सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे लोग आसानी से मिल जाते हैं। इन्हें जरूरत होती है ऐसे किसी हमदर्द की जो इनके दर्द को समझकर इसे बांट सके। पत्रिका ‘आओ खुशियां बांटेÓ अभियान के माध्यम से ऐसे ही लोगों का हमदर्द बन रहा है।
मोहन को एक पतले शॉल का ही सहारा
बस स्टैंड के गेट पर एक शॉल में लिपटे बैठे वृद्ध को वहां से गुजरने वाल हर कोई व्यक्ति देखता जा रहा था। पूछने पर उसने अपना नाम मोहनलाल रैकवार बताया। उसका घर है न परिवार का कोई सदस्य। इसीलिए बस स्टैंड के गेट को ही अपना आशियाना बना लिया है। ठंड गुजारने के लिए उसके पास मात्र एक पतला सा शॉल है। इसकी ही तरह अन्य और असहाय लोग भी बस स्टैंड पर इसी तरह रात गुजारते हैं। पक्के फर्श की ठंडक और ठंडी हवा में इनकी रात कैसे गुजरती होगी? शायद यह कोई नहीं जान सकता।
बस स्टैंड के गेट पर एक शॉल में लिपटे बैठे वृद्ध को वहां से गुजरने वाल हर कोई व्यक्ति देखता जा रहा था। पूछने पर उसने अपना नाम मोहनलाल रैकवार बताया। उसका घर है न परिवार का कोई सदस्य। इसीलिए बस स्टैंड के गेट को ही अपना आशियाना बना लिया है। ठंड गुजारने के लिए उसके पास मात्र एक पतला सा शॉल है। इसकी ही तरह अन्य और असहाय लोग भी बस स्टैंड पर इसी तरह रात गुजारते हैं। पक्के फर्श की ठंडक और ठंडी हवा में इनकी रात कैसे गुजरती होगी? शायद यह कोई नहीं जान सकता।