टिप्पणी- गोविंद अग्निहोत्री
…कुछ तो लाज बचा लेते साहब
नै तिकता अंतरात्मा की आवाज है। यह वह शब्द है जो हमें अच्छाई-बुराई का बोध कराता है। सीमा लांघने पर अंतर्मन धिक्कारता है। इसी नैतिकता शब्द का उपयोग कर वार्डनों को उनके पद से हटाया गया। इतनी ही नैतिकता थी तो आरोपी वार्डन माफी मांग सकती थीं। बेटी समान छात्राओं के सामने उनका कद छोटा नहीं हो जाता। पीडि़तों को न्याय दिलाने के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों को मौका नहीं मिलता। अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ छात्र-छात्राएं तपती दुपहरी में यूं प्रदर्शन न करते। कुलपति महोदय को भी गुस्से में धरने पर नहीं बैठना पड़ता। आप बैठे भी तो दूसरे पाले में। कहीं तो छात्राओं के पक्ष में खड़े दिखते। दरअसल, इस तरह के मामलों में जांच कमेटी गठित कर रिपोर्ट बनाना बचने-बचाने की सरल प्रक्रिया है। यही कुछ हुआ हमारी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में। आशंका भी यही थी। जांच कमेटी के नाम का ड्रामा खेला गया। जब परदा उठा तो नौटंकी सामने आ गई। एक तरह से आरोपियों को क्लीन चिट दी गई। दूसरी ओर कमेटी में शामिल एक स्वतंत्र सदस्य का यह कहना कि घटना हुई है, जांच रिपोर्ट पर गंभीर सवाल उठाता है। ऐसे में कोई कितना विश्वास करे रिपोर्ट पर। परिवार के लोग यदि परिवार के ही किसी सदस्य पर लगे आरोपों की जांच करेंगे तो निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। उम्मीद तो आरोपियों पर सख्त कार्रवाई की थी। दांव पर लगी यूनिवर्सिटी की साख बचाने की भी उम्मीद थी। आगे से इस तरह की घटनाओं का दोहराव नहीं होगा, इसके लिए भी कुछ तो प्रावधान करते। विवि की धूमिल होती छवि की खातिर ही सही, नैतिकता के आधार पर कुछ तो लाज बचती।