पैतृक धंधा पहचान थी, मजबूरी में बदला-
प्रेमनारायण चौरसिया ने बताया कि पान की खेती बंगला और मीठी पत्ती में फायदा नहीं रहा। सरकार से मदद भी नहीं मिलती। बौनी करने के बाद जो फसल आई वह इकठ्ठी नहीं बिकती है इससे पंसारियों के पास पैसा इकठ्ठा नहीं हो पाता था। धीरे-धीरे एक लाख की लागत मे ७५ हजार ही हाथ आता था। मेहनत मजबूरी भी अलग लगती थी। अपना पैतृक धंधा छूटता है तो काफी दुख होता है।
फसल की लागत महंगी पड़ती है-
सीताराम चौरसिया बताते हैं कि कई वर्षों से मौसम रूठा हुआ है और ठंड ज्यादा होने का असर पान की खेती पर पड़ा है। वह बताते हैं कि पान की खेती में रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं होता। बल्कि तिल, तेल, उड़द आदि मिलाकर मटकों में रखकर जैविक खाद तैयार की जाती है। इस खाद को बनाने में लागत भी ज्यादा आती है। इतना ही नहीं, खेती की जमीन तैयार करने में भी खूब पसीना बहाना पड़ता है।
पान की खेती लागत मांगती है।