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पंसारी इस कारण मजबूर हुए बरेजे छोड़, चाय, जूते, कपड़ों की दुकान खोलने

locationसागरPublished: Jun 12, 2019 02:54:17 pm

Submitted by:

manish Dubesy

पंसारी इस कारण मजबूर हुए बरेजे छोड़, चाय, जूते, कपड़ों की दुकान खोलने

Side effects of water conservation Paan farming

Side effects of water conservation Paan farming

पानी की कमी ने ऐसा मजबूर किया कि पस्त हो गया पंसारी समाज
शासन से नहीं मिलती कोई मदद, न ही सलाह
दिलीप चौरसिया @ जैसीनगर. नगर में करीब २० साल पहले पान का अच्छा उत्पादन था। कारोबार सागर, रीछई, बिजोरी, शोभापुर, करैया, सुल्तानगंज, बेगमगंज, देवरी आदि जगह पर होता था। वक्त बदला, एक तो नाजुक खेती उस पर मौसम की मार ने चौरसिया समाज के पंसारियों को पस्त कर दिया। अब यहां के लोग बरेजे न लगाकर कई प्रकार के धंधे में जुट गए हैं। कुछ लोगों ने बरेजों की जगह पर खेती शुरू कर दी है। जिसमें वह किसी तरह से पानी की व्यवस्था कर जीवन यापन
कर लेते हैं।
एक दौर थाए जब जैसीनगर के आसपास बड़ी संख्या में पान के बरेजे नजर आ जाते थे। मगर अब उनकी पैदावार बंद हो गई है। इस कारोबार मे वर्षो से लगे भगवानदास चौरसिया कहते हैं कि पान की खेती नवजात शिशु को पालने के समान होती है। ज्यादा ठंड व ज्यादा गर्मी दोनों पान की फसल को चौपट कर देती है। हाल यह रहता था कि जरा सी चूक हुई और बात बिगड़ जाती है। वह कहते हैं कि पान की खेती में सबसे ज्यादा असर मौसम का होता है। तापमान 20 डिग्री के आसपास हो तो पान की खेती अच्छी होती है। अधिक तापमान होने पर पानी से सिंचाई कर पान को झुलसने से बचा लिया जाता है। मगर ठंड ज्यादा पडऩे पर पान के उत्पादन का प्रभावित होना तय है।
लखन चौरसिया उन्होंने बताया कि पहले हम लोग लुटिया से पानी देते थे अब वर्तमान में आधुनिक उपकरण आ गए हैं पहले हम लोग पत्तों की टटिया बनाकर हवा, धूप और पानी से बचाते थे। जैसीनगर में लगभग 10 एकड़ भूमि में बरेजे लगाए जाते थे।
आज भी वार्ड-2, 18 और 19 को बरेजे के नाम से ही जाना जाता है। अब कुछ जमीन पर खेती होती है और कुछ पर लोग रहने लगे हैं। पंसारी समाज के यहां करीब १५०० लोग हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया।
सूखे ने लील लिए बरेजे-
गोपाल चौरसिया ने बताया कि पान बरेजे बनाने में हर साल लाखों रुपए हम लोग खर्च करते थे लेकिन कभी भीषण गर्मी कभी बरसात कभी बीमारियों से फसल नष्ट हो जाती है तो हम लोगों ने बरेजे का काम बंद कर दिया है। वर्तमान में समस्त पंसारियों ने पान की खेती बंद कर उसी जगह पर खेती किसानी शुरू कर दी है।
सरकारों ने भी चौरसिया समाज के इस धंधे के लिए कोई योजना नहीं बनाई जिस कारण समस्त चौरसिया समाज को या धंधा बंद करना पड़ा।

पैतृक धंधा पहचान थी, मजबूरी में बदला-
प्रेमनारायण चौरसिया ने बताया कि पान की खेती बंगला और मीठी पत्ती में फायदा नहीं रहा। सरकार से मदद भी नहीं मिलती। बौनी करने के बाद जो फसल आई वह इकठ्ठी नहीं बिकती है इससे पंसारियों के पास पैसा इकठ्ठा नहीं हो पाता था। धीरे-धीरे एक लाख की लागत मे ७५ हजार ही हाथ आता था। मेहनत मजबूरी भी अलग लगती थी। अपना पैतृक धंधा छूटता है तो काफी दुख होता है।

फसल की लागत महंगी पड़ती है-
सीताराम चौरसिया बताते हैं कि कई वर्षों से मौसम रूठा हुआ है और ठंड ज्यादा होने का असर पान की खेती पर पड़ा है। वह बताते हैं कि पान की खेती में रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं होता। बल्कि तिल, तेल, उड़द आदि मिलाकर मटकों में रखकर जैविक खाद तैयार की जाती है। इस खाद को बनाने में लागत भी ज्यादा आती है। इतना ही नहीं, खेती की जमीन तैयार करने में भी खूब पसीना बहाना पड़ता है।
पान की खेती लागत मांगती है।

 

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