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चित्रकूट उपचुनाव फ्लैश बैक: अप्रत्याशित परिणामों से चौंकाते रहे हैं चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र के मतदाता

locationसतनाPublished: Oct 17, 2017 12:05:50 pm

Submitted by:

suresh mishra

पहली बार उप चुनाव में करेंगे वोट, वनग्रामों के नहीं बदले हालात, रोजी-रोटी के लिए जंगल का सहारा और जंगल के लिए चाहिए डकैतों की कृपा

Chitrakoot by-election Flashback latest news in satna madhya pradesh

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शक्तिधर दुबे @ चित्रकूट। विधानसभा क्षेत्र के 1 लाख 95 हजार से अधिक मतदाता उप चुनाव में पहली बार 9 नवंबर को मतदान करेंगे। कांग्रेस विधायक प्रेम सिंह के 29 मई 2017 को हुए निधन से रिक्त सीट के आगामी परिणाम चाहे जो भी हों लेकिन, क्षेत्र के मतदाता ने अक्सर चौंकाया है। भौगोलिक दृष्टि से यूपी से लगे इस विस क्षेत्र के 60 फीसदी मतदाता कम पढ़े-लिखे और वन ग्रामों में रहते हैं।
उनकी भावनाएं राजनैतिक दलों से अधिक मुसीबत में साथ देने वाले व्यक्तियों से जुड़ी हैं। संभवत: यही वजह है कि, महज कक्षा आठवीं तक शिक्षित रहे कांग्रेस नेता प्रेम सिंह तीन बार क्रमश: सन् 1998, 2003और 2013 में विधायक चुने गए। भाजपा और शिवराज-मोदी की लहर के बावजूद 2013 में पार्टी प्रत्याशी सुरेन्द्र सिंह गहरवार असफल रहे।
सांसद रहते हुए भी रामानंद हारे
सन् 1998 में लोकसभा चुनाव जीतकर 13 महीने सांसद रहे रामानंद सिंह ने दूसरी बार 1999 में भी संसदीय चुनाव जीता और संसद में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन, इसी कार्यकाल के दौरान सन् 2003 उन्हें चित्रकूट से विस चुनाव लड़ाया गया। और, नतीजा हैरान करने वाला था। रामानंद की जमानत जब्त हो गई। उन्हें केवल 13 हजार 654 वोट मिले। उम्मीदवारों की सूची में चौथे नंबर पर रहे। प्रेम सिंह ने रामानंद को 19 हजार 264 वोटों से हराया।
1993 में जिताया अनजाना चेहरा
चित्रकूट विस क्षेत्र के मतदाताओं को पढ़ पाना अनुभवी नेताओं के लिए भी बेहद मुश्किल है। सन् 1993 में लोगों ने निहायत अनजाने चेहरे को जिताकर विधानसभा भेजा। तब बसपा का क्षेत्र में प्रादुर्भाव ही हो रहा था। और, पार्टी ने शिक्षक रहे गणेश बारी को दिग्गजों के सामने उतार दिया। सियासी अनुमानों के विपरीत गणेश बारी 4 हजार से अधिक मतों से विजयी हुए। बारी ने भाजपा के रामानंद, कांग्रेस के रामचंद्र बाजपेई, निर्दलीय प्रेमसिंह और रामदास मिश्रा को शिकस्त दी।
ज्यादातर को दोबारा मिला मौका
चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने कई राजनीतिक नेताओं को एक से अधिक बार अवसर दिया. लेकिन विकास केवल शहरी सीमा तक ही सीमित रहा। गांवों में विकास कोई असर दिखा ही नहीं। मसलन, कांग्रेस के रामचंद्र बाजपेई (दिवंगत) दोबार सन 1980 और 85 में चुने गए। प्रेमसिंह तीन बार 1998, 2003 और 2013 में विधायक बने। रामानंद सिंह को भी दोबार मतदाताओं ने क्रमश: 1977 और 1990 में मौका दिया।
मतदाताओं की दशा
विस क्षेत्र के अधिकतर मतदाता गरीब, अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे हैं। वनग्रामों में रहने वाले हजारों मतदाताओं के पास रोजी-रोटी का जुगाड़ नहीं है। महिलाओं की दशा सबसे दयनीय है। सुबह पूरा परिवार जंगल चला जाता है। दोपहर बाद लकड़ी काटकर घर लौटता है। दूसरे दिन वहीं सूखी-अधसूखी लकड़ी बेचकर दो दिन की रोटी का इंतजाम करता है। सरकार की योजनाएं उनके लिए बेमानी हैं। विकास के आंकड़े सिर्फ खानापूर्ति है।
धुरंधरों को नकारा
क्षेत्र से चुनाव लडऩे वाले कुछ ऐसे भी नेता हैं जिन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया। भाजपा के वयोवृद्ध नेता रामदास मिश्रा ने तीन बार क्रमश: 1990,1993 और 1998 में चुनाव लड़ा। तीनों बार हारे। सन् 1990 में 14 सौ, 1993 में 13,700 और 1998 में केवल 17 हजार वोट मिले। कांग्रेस की वोरा सरकार में तीन महीने के लिए मंत्री रहे रामचंद्र बाजपेई के बेटे रंजन बाजपेई ने भी पिता के रसूख पर दोबार किस्मत आजमाई। 2003 में निर्दलीय लड़े । और, 2008 में बसपा की टिकट पर महज 13 हजार वोटों पर सिमट गए।
इधर डकैत उधर विभाग
जंगल से रोटी कमाना भी कुछ कम मुश्किल नहीं। वनवासी मतदाताओंं को जंगल में लकड़ी काटने के लिए डकैतों की तरह-तरह की ‘सेवाएंÓ करनी पड़ती हैं। वहां से छूटे तो जंगल विभाग के अफसर-बाबू घेर लेते हैं। उनकी भी ‘सेवाÓ करनी पड़ती है। इन दोनों से बचाने न पुलिस आती है, न नेता।
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