सन् 1998 में लोकसभा चुनाव जीतकर 13 महीने सांसद रहे रामानंद सिंह ने दूसरी बार 1999 में भी संसदीय चुनाव जीता और संसद में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन, इसी कार्यकाल के दौरान सन् 2003 उन्हें चित्रकूट से विस चुनाव लड़ाया गया। और, नतीजा हैरान करने वाला था। रामानंद की जमानत जब्त हो गई। उन्हें केवल 13 हजार 654 वोट मिले। उम्मीदवारों की सूची में चौथे नंबर पर रहे। प्रेम सिंह ने रामानंद को 19 हजार 264 वोटों से हराया।
चित्रकूट विस क्षेत्र के मतदाताओं को पढ़ पाना अनुभवी नेताओं के लिए भी बेहद मुश्किल है। सन् 1993 में लोगों ने निहायत अनजाने चेहरे को जिताकर विधानसभा भेजा। तब बसपा का क्षेत्र में प्रादुर्भाव ही हो रहा था। और, पार्टी ने शिक्षक रहे गणेश बारी को दिग्गजों के सामने उतार दिया। सियासी अनुमानों के विपरीत गणेश बारी 4 हजार से अधिक मतों से विजयी हुए। बारी ने भाजपा के रामानंद, कांग्रेस के रामचंद्र बाजपेई, निर्दलीय प्रेमसिंह और रामदास मिश्रा को शिकस्त दी।
चित्रकूट विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने कई राजनीतिक नेताओं को एक से अधिक बार अवसर दिया. लेकिन विकास केवल शहरी सीमा तक ही सीमित रहा। गांवों में विकास कोई असर दिखा ही नहीं। मसलन, कांग्रेस के रामचंद्र बाजपेई (दिवंगत) दोबार सन 1980 और 85 में चुने गए। प्रेमसिंह तीन बार 1998, 2003 और 2013 में विधायक बने। रामानंद सिंह को भी दोबार मतदाताओं ने क्रमश: 1977 और 1990 में मौका दिया।
विस क्षेत्र के अधिकतर मतदाता गरीब, अशिक्षित या कम पढ़े-लिखे हैं। वनग्रामों में रहने वाले हजारों मतदाताओं के पास रोजी-रोटी का जुगाड़ नहीं है। महिलाओं की दशा सबसे दयनीय है। सुबह पूरा परिवार जंगल चला जाता है। दोपहर बाद लकड़ी काटकर घर लौटता है। दूसरे दिन वहीं सूखी-अधसूखी लकड़ी बेचकर दो दिन की रोटी का इंतजाम करता है। सरकार की योजनाएं उनके लिए बेमानी हैं। विकास के आंकड़े सिर्फ खानापूर्ति है।
क्षेत्र से चुनाव लडऩे वाले कुछ ऐसे भी नेता हैं जिन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया। भाजपा के वयोवृद्ध नेता रामदास मिश्रा ने तीन बार क्रमश: 1990,1993 और 1998 में चुनाव लड़ा। तीनों बार हारे। सन् 1990 में 14 सौ, 1993 में 13,700 और 1998 में केवल 17 हजार वोट मिले। कांग्रेस की वोरा सरकार में तीन महीने के लिए मंत्री रहे रामचंद्र बाजपेई के बेटे रंजन बाजपेई ने भी पिता के रसूख पर दोबार किस्मत आजमाई। 2003 में निर्दलीय लड़े । और, 2008 में बसपा की टिकट पर महज 13 हजार वोटों पर सिमट गए।
जंगल से रोटी कमाना भी कुछ कम मुश्किल नहीं। वनवासी मतदाताओंं को जंगल में लकड़ी काटने के लिए डकैतों की तरह-तरह की ‘सेवाएंÓ करनी पड़ती हैं। वहां से छूटे तो जंगल विभाग के अफसर-बाबू घेर लेते हैं। उनकी भी ‘सेवाÓ करनी पड़ती है। इन दोनों से बचाने न पुलिस आती है, न नेता।