पिंड्रा के आदिवासियों के छापामार युद्ध का जिक्र अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार न्यूयॉर्क टाइम में भी मिलता है। 1 अक्टूबर 1858 के अंक में ‘भारत में विद्रोह’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था, जिसमें छापामार युद्ध का जिक्र करते हुए पिंड्रा गांव के आदिवासियों के युद्ध शैली की तारीफ भी की थी। इतना ही नहीं अंग्रेजों के संघर्ष को भी कमजोरी के रूप में उजागर किया गया था।
पिंड्रा के वाशिंदे अतीत पर भले ही गर्व महसूस करते है, लेकिन वर्तमान हालातों से वे जरा भी संतुष्ट नहीं हैं। जिनके पुरखों ने देश की आजादी में अपनी जान की बाजी लगा दी। उन्हें आज सड़क, पानी और बिजली जैसी जरूरी सुविधाओं के लिए परेशान होना पड़ रहा है। आदिवासी बहुल्य इस गांव में रोजागर के कोई साधन नहीं हैं। रहवासियों की अजीविका खेती व वन उत्पादों पर आश्रित है, लेकिन धीरे-धीरे उसका भी दायरा सीमित होता जा रहा है। प्रकृति भी साथ नहीं दे रही। शासन स्तर से यहां के लोगों को विकास मुख्य धारा सेे जोडऩे के लिए ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे। दिग्विजय सरकार में पिंड्रा चौराहे पर बनाया गया शहीद स्मारक भी उपेक्षा की कहानी बयां करने लगा है।