आलम यह है कि जंगल की भूमि के हरे भरे पेड़ काटकर बारी लगा दी गई है। कोशश है कि जंगल को उजाड़ कर इस भूमि पर खेती की जाए अथवा रसूख के बल पर भू प्रयोग परिवर्तित करा कर मल्टी स्टोरी खड़ी कर दी जाए। हो चाहे जो पर ऐसे ही चलता रहा तो जल्द ही जंगल का नामो निशान तक मिट जाना तय है। फायदा भू-माफिया उठाएंगे और आदिवासी जहां के तहां रह जाएंगे।
जनकपुर के स्थानीय लोगों की मानें तो भूमाफिया, आदिवासी समाज के कुछ लोगों को आगे कर जंगल की जमीन पर अवैध कब्जा करना शुरू कर चुके हैं। लेकिन उस जमीन से कब्जा हटाने को लेकर वन विभाग के अधिकारी व कर्मचारी बेफिक्र हैं। या यूं कहें कि उस तरफ से ध्यान हटा लिया है तो गलत न होगा। नतीजा सामने है, भू माफिया का मनोबल दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। स्थानीय लोगों ने जिला प्रशासन से मांग की है कि विश्रमगंज परीक्षेत्र में हो रहे अवैध कब्जे को जंगल की भूमि से शीघ्र हटा कर जंगल की भूमि की रक्षा की जाय।
बताया जा रहा है कि कल्दा पठार से लेकर जिले के चारों तरफ आदिवासी समाज के नाम पर भले ही पट्टे दर्ज हों मगर उनकी जमीनों पर बड़े पैमाने पर दबंग लोगों ने कब्जा कर रखा है। लेकिन इस पर जिले के जनप्रतिनिधियों और जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा कभी भी ध्यान नहीं दिया जाता। ये भू-माफिया आदिवासी समाज के लोगों को शराब व अन्य नशों की लत में डूबोकर उनसे स्टॉम्प पेपर पर अंगूठा लगवा लेते हैं फिर उनकी जमीन माफिया की गिरफ्त में।
हाल ये है कि गरीब मजदूरों की जमीनों पर वर्षों से दबंग खेती करवा रहे हैं। लेकिन अधिकारी तो यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं करते कि जिन जमीनों का पट्टा आदिवासियों के नाम किया गया है वो वहां काबिज हैं भी या नहीं। जिम्मेदारों की लापरवाही के चलते इलाके में पत्थर खदानों का संचालन भी बड़े पैमाने पर होने लगा है।
लोग बताते हैं कि इस संबंध में अधिकारियों से लगायत मुख्यमंत्री तक का ध्यान आकृष्ट कराया गया। मांग की गई कि आदिवासी समाज की जमीनों की समय-समय पर जांच पड़ताल की जाए। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हाल ये है कि जिन जमीनों के पट्टे गरीब आदिवासियों को भरण-पोषण के लिए दिए गए हैं उन पर उनके द्वारा ही खेती की जा रही है या फिर उनकी जमीनों पर दबंग खेती व खदानों का संचालन कर कमाई कर रहे हैं।