प्रवासी श्रमिक बताता है कि वह तो पुणे गया था। जीवन ठीक से चल निकला था। रोज का साढ़े चार सौ रुपये मिलते रहे। दिन बड़े आराम से कट रहा था। तभी कोरोना का संक्रमण शुरू हुआ, लॉकडाउन हो गया। सारा कुछ एक झटके में कत्म हो गया। जो भी पैसा-रुपया रहा हाथ में वह सब खत्म हो गया और जो बचा वह ठेकेदार के हत्थे चढ गया। पास में फूटी कौड़ी न बची। ये उस सेवाराम की कहानी है जो चार साल पहले बीवी बच्चों सहित पुणे गया था। लेकिन लौटा तब जब नमक तक नसीब न हुआ। किसी ने वहां एक रोटी तक नहीं दी। क्या सरकरा, क्या संस्थाएं। मकान मालिक रोज किराया मांगता रहा। रोज धमकता और धमका कर चला जाता। सेवाराम ने कसम खाई कि अब कभी वह परदेस नहीं जाएगा।
सेवाराम के साथ पुणे से ही सतना लौटा है आमा रैगांवा निवासी राजकुमार लोधी। बताया कि वहां राजमिस्त्री का काम करता कहा। लेकिन जब लॉकडाउन हो गया तो ठेकेदार ने दो महीने की मजूरी भी दबा ली। हालत यह कि एक वक्त का खाना खा कर सोना पड़ता था। जिस परिवार के लिए पैसा कमाने गया था, उसी से पैसे मंगा कर किसी तरह 50 दिन काटे। राजकुमार ने भी कसम खाई कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी वह पुणे नहीं जाएगा।
अब इनके पुणे से सतना आने का सफरनामा पुणे से रीवा आने वाली ट्रेन में 217 श्रमिक सवार हुए। ये सभी शनिवार की दोपहर में सतना पहुंचे। बताया कि ट्रेन का किराया नहीं लगा। पुणे में जांच के दौरान टिकट मिल गया था। लेकिन खाने-पीने का कोई इंतजाम ट्रेन में नहीं था। पुणे के बाद मनमाड़ में तला चावल (वेज बिरियानी) मिला उसके बाद कहीं किसी ने पूछा तक नहीं।